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व्यवहारचारित्राधिकार
परमसंयमधरः परमजिनयोगीश्वरः यः स्वकीयं वपुः स्वस्य वपुषा विवेश तस्यापरिस्पंदमूतिरेव
निश्चयकायगुप्तिरिति ।
तथा चोक्तं तत्त्वानुशासने ह्र
तथा हि
( अनुष्टुभ् )
उत्सृज्य कायकर्माणि भावं च भवकारणम् । स्वात्मावस्थानमव्यग्रं कायोत्सर्गः स उच्यते । । ३४ । । '
(अनुष्टुभ् ) अपरिस्पन्दरूपस्य परिस्पन्दात्मिका तनुः । व्यवहाराद्भवेन्मेऽतस्त्यजामि विकृतिं तनोः ।। ९५ ।।
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करनेवाले परमजिन योगीश्वर हैं; वे अपने चैतन्यरूप शरीर में अपने चैतन्यरूप शरीर से प्रविष्ट हो गये हैं; उनकी यह अकंपदशा ही निश्चय कायगुप्ति है । "
इस गाथा में मात्र यह कहा गया है कि वस्तुत: कायोत्सर्ग ही निश्चय कायगुप्ति है । यह कायोत्सर्ग की स्थिति त्रस स्थावर जीवों के घात से सर्वथा रहित होती है; इसलिए हिंसादि की निवृत्ति को भी कायगुप्ति कहा जाता है। मुनिराजों की अकंपध्यानावस्था ही वस्तुतः
गुप्त है ॥७०॥
इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव 'तथा तत्त्वानुशासन में भी कहा है' ह्र ऐसा कहकर एक छन्द प्रस्तुत करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
( सोरठा )
दैहिक क्रिया कलाप भव के कारण भाव सब ।
तज निज आतम माँहि रहना कायोत्सर्ग है ||३४||
दैहिक क्रियाओं और संसार के कारणभूत जीवों को छोड़कर अव्यग्र रूप से निज आत्मा में स्थित रहना ही कायोत्सर्ग कहलाता है।
इस छन्द में कायोत्सर्ग का स्वरूप स्पष्ट किया गया है। कहा गया है कि भव के कारणरूप मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र रूप भावों और शारीरिक क्रियाकलापों को छोड़कर अपने आत्मा में स्थिर रहना ही कायोत्सर्ग है | |३४||
इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव एक छंद स्वयं लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है
१. तत्त्वानुशासन, श्लोक संख्या अनुपलब्ध है।