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नियमसार
(स्रग्धरा) नीत्वास्तान् सर्वदोषान् त्रिभुवनशिखरे ये स्थिता देहमुक्ताः तान् सर्वान् सिद्धिसिद्ध्यै निरुपमविशदज्ञानद्दक्शक्तियुक्तान् । सिद्धान् नष्टानष्टकर्मप्रकृतिसमुदयान् नित्यशुद्धाननन्तान् अव्याबाधान्नमामि त्रिभुवनतिलकान् सिद्धिसीमन्तिनीशान् ।।१०२।।
(अनुष्टुभ् ) स्वस्वरूपस्थितान् शुद्धान् प्राप्ताष्टगुणसंपदः ।
नष्टानष्टकर्मसंदोहान् सिद्धान् वंदे पुनः पुनः ।।१०३।। तात्पर्य यह है कि वे सिद्ध भगवान निश्चय से तो निज में ही रहते हैं; पर व्यवहारनय से ऐसा कहा जाता है कि वे लोकाग्र में स्थित सिद्धशिला पर विराजमान हैं।॥१०१|| दूसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
(वीर) देहमुक्त लोकाग्र शिखर पर रहे नित्य अन्तर्यामी । अष्ट कर्म तो नष्ट किये पर मक्ति सुन्दरी के स्वामी ।। सर्व दोष से मुक्त हुए पर सर्वसिद्धि के हैं दातार।
सर्वसिद्धि की प्राप्ति हेतु मैं करूँ वन्दना बारंबार||१०२।। जो सर्व दोषों को नष्ट करके देह से मुक्त होकर तीन लोक के शिखर पर विराजमान हैं, जो अनुपम निर्मल ज्ञान-दर्शनशक्ति से युक्त हैं, जिन्होंने आठ कर्म की प्रकृतियों के समुदाय को नष्ट किया है; जो नित्य शुद्ध हैं, अनंत हैं, अव्याबाध हैं, तीन लोक के तिलक हैं और मुक्ति सुन्दरी के स्वामी हैं; उन सभी सिद्धों को सिद्धि की कामना से नमस्कार करता हूँ। ___ उक्त छन्द में सिद्ध भगवान की स्तुति करते हुए उनके स्वरूप को स्पष्ट किया गया है। उनका वास्तविक स्वरूप यह है कि वे सर्व दोषों से मुक्त हैं, देह से भी मुक्त हो गये हैं और लोकाग्र में स्थित हैं। उनके ज्ञान-दर्शनादि सभी गुणों का परिणमन पूर्ण निर्मल हो गया है
और वे आठों कर्मों की १४८ प्रकृतियों से पूर्णत: मुक्त हैं। ऐसे सिद्ध भगवान संख्या में अनंत हैं, प्रत्येक में अनंत-अनंत गुण हैं, उन्हें अव्याबाध सुख की प्राप्ति हो गई है; अब उसमें अनंत काल में कभी कोई बाधा आनेवाली नहीं है। मैं भी उन जैसा ही बनना चाहता हूँ। इसके अतिरिक्त मेरी अन्य कोई चाह नहीं है। अत: मैं उन्हें पूर्णत: निस्वार्थ भाव से नमस्कार करता हूँ||१०२।।
तीसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र