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व्यवहारचारित्राधिकार
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निरन्तराखंडितपरमतपश्चरणनिरतसर्वसाधुस्वरूपाख्यानमेतत् । ये महान्त: परमसंयमिनः त्रिकालनिरावरणनिरंजनपरमपंचमभावभावनापरिणताः अत एव समस्तबाह्यव्यापारविप्रमुक्ताः: ज्ञानदर्शनचारित्रपरमतपश्चरणाभिधानचतुर्विधाराधनासदानुरक्ताः; बाह्याभ्यन्तरसमस्तपरिग्रहाग्रहविनिर्मुक्तत्वान्निर्ग्रन्थाः; सदा निरंजननिजकारणसमयसारस्वरूपसम्यक्श्रद्धानपरिज्ञानाचरणप्रतिपक्षमिथ्यादर्शनज्ञानचारित्राभावान्निर्मोहा:च; इत्थंभूतपरमनिर्वाणसीमंतिनीचारुसीमन्तसीमाशोभामसूणघुसृणरज:पुंजपिंजरितवर्णालंकारावलोकनकौतूहलबुद्धयोऽपि ते सर्वेपि साधवः इति ।
विगत गाथा में उपाध्याय परमेष्ठी का स्वरूप स्पष्ट किया गया है और अब इस गाथा में साधु परमेष्ठी का स्वरूप स्पष्ट करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(हरिगीत) आराधना अनुरक्त नित व्यापार से भी मुक्त हैं।
जिनमार्ग में सब साधुजन निर्मोह हैं निर्ग्रन्थ हैं ।।७५|| सभी प्रकार के व्यापार से विमुक्त, चार प्रकार की आराधनाओं में सदा रक्त (लीन) निर्ग्रन्थ और निर्मोह साध परमेष्ठी होते हैं।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न
“यह परमतपश्चरण में निरन्तर अखण्डरूप से लीन सर्व साधुओं के स्वरूप का व्याख्यान है। साधु परमेष्ठी, परमतपस्वी महापुरुष होने से त्रिकालनिरावरण निरंजन परमपंचमभाव की भावना में परिणमित होने के कारण समस्त बाह्य-व्यापार से मुक्त हैं; ज्ञान, दर्शन, चारित्र और परमतप नामक चार आराधनाओं में सदा अनुरक्त हैं; समस्त बाह्याभ्यन्तर परिग्रह के ग्रहण से रहित होने के कारण निर्ग्रन्थ हैं; तथा सदा निरंजन निजकारण समयसार के स्वरूप के सम्यक्श्रद्धान, ज्ञान और आचरण से विरुद्ध मिथ्यादर्शन, ज्ञान और आचरण का अभाव होने से पूर्णत: निर्मोह होते हैं।
ऐसे सभी साध, परमनिर्माण सन्दरी की सन्दर माँग की शोभारूप कोमल केशर की रजपुंज के सुवर्ण वर्णवाले अलंकार को देखने में कौतूहल बुद्धिवाले होते हैं।" __इस गाथा और उसकी टीका में साधु परमेष्ठी को परमतपस्वी महापुरुष कहा गया है; क्योंकि आचार्य और उपाध्याय तो कदाचित संघ की व्यवस्था, प्रशासन और पठन-पाठन, अध्यापन में व्यस्त रहते हैं; किन्तु सामान्य साधु तो निरंतर आत्मसाधना में ही मग्न रहते हैं; बाह्य व्यापार से सर्वथा मुक्त ही रहते हैं । निरन्तर चार प्रकार की आराधना में ही तत्पर रहनेवाले सर्व साधु आचार्य-उपाध्याय की अपेक्षा अधिक निर्मोही और पूर्णत: निर्ग्रन्थ होते हैं ।।७५।।