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परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार
चारित्राविचलस्थितिहेतोः प्रतिक्रमणादिनिश्चयक्रिया निगद्यते । अतीतदोषपरिहारार्थं यत्प्रायश्चित्तं क्रियते तत्प्रतिक्रमणम् । आदिशब्देन प्रत्याख्यानादीनां संभवश्चोच्यत इति । तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभि: ह्र
( अनुष्टुभ् )
भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किल केचन ।
अस्यैवाभावतो बद्धा बद्धा ये किल केचन ।। ३७ ।। १
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स्थिति रहे, इसलिए यहाँ प्रतिक्रमणादि की निश्चयक्रिया कही जा रही है । भूतकाल के दोषों का परिहार करने के लिए जो प्रायश्चित्त किया जाता है; वह प्रतिक्रमण है । आदि शब्द में प्रत्याख्यानादि का समावेश भी संभव होता है ।"
गाथा और टीका का सार यह है कि पंचरत्न संबंधी विगत पाँच गाथाओं में नरनारकादि पर्यायों; मार्गणा, गुणस्थान और जीवस्थान आदि भावों; बालकादि अवस्थाओं और क्रोधादि कषायों से भगवान आत्मा का जो भेदविज्ञान कराया गया है; उससे माध्यस्थ भाव प्रगट होता है। उक्त माध्यस्थभाव से निश्चयचारित्र प्रगट होता है और निश्चयचारित्र के धारक सन्तों के जीवन में निश्चय प्रतिक्रमण, आलोचना और प्रत्याख्यान प्रगट होते हैं ।
प्रायश्चित्तपूर्वक भूतकाल के दोषों का परिमार्जन करना प्रतिक्रमण है, वर्तमान दोषों का परिमार्जन आलोचना है और भविष्य में कोई दोष न हो ह्न इसप्रकार का संकल्प करना प्रत्याख्यान है। तात्पर्य यह है कि जीवन को संयमित करने के लिए, संयमित जीवन में दृढता लाने के लिए; प्रतिक्रमण, आलोचना और प्रत्याख्यान अत्यन्त आवश्यक है। अतः यहाँ प्रतिक्रमण, आलोचना और प्रत्याख्यान का स्वरूप समझाते हैं ।। ८२ ।।
इसके उपरान्त टीकाकार पद्मप्रभमलधारिदेव ' तथा आचार्य अमृतचन्द्र ने भी कहा है ' ह्न लिखकर एक छन्द उद्धृत करते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है
(रोला ) अबतक जो भी हुए सिद्ध या आगे होंगे ।
महिमा जानो एकमात्र सब भेदज्ञान की । और जीव जो भटक रहे हैं भवसागर में ।
भेदज्ञान के ही अभाव से भटक रहे हैं ||३७||
आजतक जो कोई भी सिद्ध हुए हैं; वे सब भेदविज्ञान से ही सिद्ध हुए हैं और जो कोई बँधे हैं; वे सब उस भेदविज्ञान के अभाव से ही बँधे हैं।
१. समयसार, श्लोक १३१