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नियमसार
मोत्तूण अणायारं आयारे जो दु कुणदि थिरभावं । सो पडिकमणं उच्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा ।।८५।।
मुक्त्वानाचारमाचारे यस्तु करोति स्थिरभावम्।।
स प्रतिक्रमणमुच्यते प्रतिक्रमणमयो भवेद्यस्मात् ।।८५।। अत्र निश्चयचरणात्मकस्य परमोपेक्षासंयमधरस्य निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूपंच भवतीत्युक्तम् । नियतं परमोपेक्षासंयमिनः शुद्धात्माराधनाव्यतिरिक्तः सर्वोऽप्यनाचारः, अत एव सर्वमनाचार मुक्त्वा ह्याचारे सहजचिद्विलासलक्षणनिरंजने निजपरमात्मतत्त्वभावनास्वरूपे यः सहजवैराग्यभावनापरिणत: स्थिरभावं करोति, स परमतपोधन एव प्रतिक्रमणस्वरूप
इस लोक में जो जीव परमात्मध्यान की भावना से रहित हैं; परमात्म ध्यानरूप परिणमित नहीं हुए हैं; सांसारिक दुःखों से दुःखी उन जीवों को नियम से अपराधी माना गया है; किन्तु जो जीव अखण्ड-अद्वैत चैतन्य भाव से निरंतर युक्त हैं, कर्मों से संन्यास लेने में निपुण वे जीव निरपराधी हैं। ___ इसप्रकार इस कलश में यही कहा गया है कि सांसारिक दुःखों से दु:खी अज्ञानी जीव अपने शुद्ध त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा के ज्ञान, श्रद्धान और ध्यान की भावना से रहित होने से, आत्मा की आराधना से रहित होने से अपराधी हैं और ज्ञानादि अनन्त गुणों का अखण्ड पिण्ड निज भगवान आत्मा की आराधना करनेवाले, उसे जाननेवाले, उसका श्रद्धान करनेवाले और उसके ही ध्यान में मग्न रहनेवाले जीव निरपराधी हैं।।११२।।
अब इस गाथा में यह बता रहे हैं कि निश्चयचारित्र के धारक सन्तों को ही निश्चयप्रतिक्रमण होता है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(हरिगीत ) जो जीव छोड़ अनाचरण आचार में थिरता धरे।
प्रतिक्रमणमय है इसलिए प्रतिक्रमण कहते हैं उसे।।८५|| जो जीव अनाचार छोड़कर आचार में स्थिरता करता है, वह जीव प्रतिक्रमण कहा जाता है; क्योंकि वह प्रतिक्रमणमय है।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न
“यहाँ निश्चयचारित्रात्मक परमोपेक्षा संयम धारण करनेवाले को निश्चयप्रतिक्रमण होता है ह्न ऐसा कहा है। परमोपेक्षा संयम धारण करनेवाले के लिए अथवा उसकी अपेक्षा शद्ध आत्मा की आराधना के अतिरिक्त सभी कार्य अनाचार हैं। इसप्रकार के सभी अनाचार छोड़कर सहज चिद्विलास लक्षण निरंजन निज परमात्मतत्त्व की भावनास्वरूप आचरण में जो परमतपोधन सहज वैराग्यभावनारूप से परिणमित होता हआ स्थिरभाव को धारण