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नियमसार
इह हि निःशल्यभावपरिणतमहातपोधन एव निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप इत्युक्तः।
निश्चयतो निःशल्यस्वरूपस्य परमात्मनस्तावद् व्यवहारनयबलेन कर्मपंकयुक्तत्वात् निदानमायामिथ्याशल्यत्रयं विद्यत इत्युचारतः। अत एव शल्यत्रयं परित्यज्य परमनिःशल्यस्वरूपे तिष्ठति यो हि परमयोगीस निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप इत्युच्यते, यस्मात् स्वरूपगतवास्तवप्रतिक्रमणमस्त्येवेति ।
(अनुष्टुभ् ) शल्यत्रयं परित्यज्य निःशल्ये परमात्मनि ।
स्थित्वा विद्वान्सदा शुद्धमात्मानं भावयेत्स्फुटम् ।।११६।। इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न “यहाँ निःशल्यभाव से परिणमित महातपोधन को ही निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप कहा है। निःशल्यस्वरूप परमात्मा के यद्यपि व्यवहारनय के बल से कर्मरूपी कीचड़ के साथ संबंध होने से मिथ्यात्व, माया और निदान नामक शल्य वर्तते हैं ह्न ऐसा उपचार से कहा जाता है; तथापि ऐसा होने से ही जो परमयोगी तीन शल्यों का परिहार करके परमनिःशल्यस्वरूप में रहता है; उसे निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप कहा जाता है; क्योंकि उसे स्वरूपगत वास्तविक प्रतिक्रमण तो है ही।"
उक्त गाथा और उसकी टीका में यही कहा गया है कि मिथ्यात्व, माया और निदान ह्न इन तीन शल्यों को छोड़कर जो ज्ञानी धर्मात्मा या मुनिराज परमनिःशल्यस्वभाव में ही ठहरते हैं, नि:शल्यभावरूप परिणमित होते हैं; वे स्वयं ही निश्चयप्रतिक्रमणस्वरूप हैं; क्योंकि उन्हें स्वरूपगत परमार्थप्रतिक्रमण तो है ही।।८७।।
इस गाथा की टीका के उपरान्त मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव दो छन्द लिखते हैं, जिसमें से पहले छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(दोहा) शल्य रहित परमात्म में तीन शल्य को छोड़।
स्थित रह शुद्धात्म को भावै पंडित लोग||११६|| तीन शल्यों को छोड़कर, निःशल्य परमात्मा में स्थिर रहकर, विद्वानों को शुद्धात्मा को सदा स्फुटरूप से भाना चाहिए।
इस कलश में मात्र इतना ही कहा गया है कि ज्ञानी धर्मात्मा विद्वानों और वीतरागी सन्तों को तो निरन्तर शुद्धात्म भावनारूप ही परिणमित होना चाहिए। तात्पर्य यह है कि ज्ञानी धर्मात्मा विद्वान और सन्त तो निरन्तर शुद्धात्मभावनारूपही परिणमित होते हैं।।११६||