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नियमसार
(स्रग्धरा) मुक्त्वानाचारमुच्चैर्जननमृतकरं सर्वदोषप्रसंगं स्थित्वात्मन्यात्मनात्मा निरुपमसहजानंददृग्ज्ञप्तिशक्तौ । बाह्याचारप्रमुक्तः शमजलनिधिवार्बिन्दुसंदोहपूतः सोऽयं पुण्यः पुराण: क्षपितमलकलिर्भाति लोकोद्घसाक्षी।।११४।। उम्मग्गं परिचत्ता जिणमग्गे जो दु कुणदि थिरभावं । सो पडिकमणं उच्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा ।।८६।। उन्मार्ग परित्यज्य जिनमार्गे यस्तु करोति स्थिरभावम्। स प्रतिक्रमणमुच्यते प्रतिक्रमणमयो भवेद्यस्मात् ।।८६।।
(रोला) जन्म-मरण के जनक सर्वदोषों को तजकर।
अनुपम सहजानन्दज्ञानदर्शनवीरजमय || आतम में थित होकर समताजल समूह से।
कर कलिमलक्षय जीव जगत के साक्षी होते||११४।। जन्म-मरण के जनक सर्व दोषों से युक्त अनाचार को सम्पूर्णत: छोड़कर, अनुपम सहज आनन्द-दर्शन-ज्ञान-वीर्यवाले अपने आत्मा में स्वयं स्थित होकर, सम्पूर्ण बाह्याचार से मुक्त होता हुआ समतारूपी समुद्र के जलबिन्दुओं के समूह से पवित्र वह सनातन पवित्र आत्मा, मलरूपी क्लेश का क्षय करके लोक का उत्कृष्ट साक्षी होता है।
उक्त कलश में सबकुछ मिलाकर मात्र इतना ही कहा गया है कि यह भगवान आत्मा जन्म-मरणरूप भव-भ्रमण करानेवाले सम्पूर्ण दोषों से युक्त अनाचार को पूर्णत: छोड़कर अपने आत्मा में स्थिर होकर सम्पूर्ण बाह्याचार अर्थात् बाह्यप्रतिक्रमण को छोड़कर अन्तर में लीनतारूप परमार्थप्रतिक्रमण करता हुआ जगत का साक्षीरूप परिणमित होता है। यही कारण है कि यह कहा गया है कि यह भगवान आत्मा स्वयं प्रतिक्रमण है, प्रतिक्रमणमय है ।।११४।।
अब इस गाथा में यह कह रहे हैं कि जो उन्मार्ग को छोड़कर जिनमार्ग में स्थिर होता है, वह स्वयं प्रतिक्रमणस्वरूप ही है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है तू
(हरिगीत) छोड़कर उन्मार्ग जो जिनमार्ग में थिरता धरे। प्रतिक्रमणमय है इसलिए प्रतिक्रमण कहते हैं उसे||८६||