________________
परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार
नाहं रागादिभेदभावकर्मभेदं कुर्वे, सहजचिद्विलासात्मकमात्मानमेव संचिंतये। नाहं भावकर्मात्मककषायचतुष्कं कुर्वे, सहजचिद्विलासात्मकमात्मानमेव संचिंतये। इति पंचरत्नांचितोपन्यासप्रपंचनसकलविभावपर्यायसंन्यासविधानमुक्तं भवतीति।
(वसंततिलका) भव्यः समस्तविषयाग्रहमुक्तचिन्तः
स्वद्रव्यपर्ययगुणात्मनि दत्तचित्तः। मुक्त्वा विभावमखिलं निजभावभिन्नं
प्राप्नोति मुक्तिमचिरादिति पंचरत्नात् ।।१०९।। मैं रागादि भेदरूप भावकर्म के भेदों को नहीं करता; मैं तो सहजचैतन्य के विलासात्मक आत्मा को ही भाता हूँ।
मैं तो भावकर्मात्मक चार कषायों के भेदों को नहीं करता; मैं तो सहजचैतन्य के विलासात्मक आत्मा को ही भाता हूँ।
इसप्रकार पाँच रत्नों के शोभित कथनविस्तार के द्वारा सम्पूर्ण विभाव पर्यायों के संन्यास का विधान कहा।"
गाथाओं और उसकी टीका का सार यह है कि परमशद्धनिश्चयनय और दष्टि के विषयभूत ध्यान के ध्येयरूप त्रिकाली ध्रुव भगवान आत्मा में, जो कि स्वयं मैं ही हूँ, न तो नरकादि पर्यायें हैं, न मार्गणास्थान, जीवस्थान और गुणस्थान ही हैं, न वह बालक, जवान और वृद्ध ही होता है, न उसमें मोह-राग-द्वेष हैं और न क्रोधादि कषायें हैं।
उक्त सभी प्रकार की अवस्थाओं और भावों का यह भगवान आत्मा स्वामी और कर्ताभोक्ता भी नहीं है। तात्पर्य यह है कि यह भगवान आत्मा अर्थात् मैं स्वयं न तो इन्हें करता हूँ, न कराता हूँ और न करने-कराने का अनुमोदक ही हूँ। इसप्रकार मैं इनसे कृत, कारित और अनुमोदना से भी अत्यन्त दूर हूँ। प्रतिक्रमण में इसप्रकार का चिन्तन-मनन किया जाता है। इसप्रकार का चिन्तन करते हए यह आत्मा इनसे संन्यास लेता है।।७७-८१।।
इसके बाद पद्मप्रभमलधारिदेव एक कलश लिखते हैं. जिसमें उक्त प्रतिक्रमण और संन्यास का फल बताया गया है। उक्त कलश का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(हरिगीत ) सम्पूर्ण विषयों के ग्रहण की भावना से मक्त हों। निज द्रव्य गुण पर्याय में जो हो गये अनुरक्त हों। छोड़कर सब विभावों को नित्य निज में ही रमें। अति शीघ्र ही वे भव्य मुक्तीरमा की प्राप्ति करें।।१०९॥