________________
परमार्थप्रतिक्रमणाधिकार
१९७
आराहणाइ वट्टइ मोत्तूण विराहणं विसेसेण । सो पडिकमणं उच्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा ।।८४।। आराधनायां वर्तते मुक्त्वा विराधनं विशेषेण ।
स प्रतिक्रमणमुच्चते प्रतिक्रमणमयो भवेद्यस्मात् ।। ८४ ।। अत्रात्माराधनायां वर्तमानस्य जन्तोरेव प्रतिक्रमणस्वरूपमुक्तम् । यस्तु परमतत्त्वज्ञानी जीवः निरंतराभिमुखतया ह्यत्रुट्यत्परिणामसंतत्या साक्षात् स्वभावस्थितावात्माराधनायां वर्तते अयं निरपराधः । विगतात्मराधन: सापराध:, अत एव निरवशेषेण विराधनं मुक्त्वा...।
लेते हैं; क्योंकि आखिर यह प्रतिपादन भी विकल्पजाल ही तो है; तुम भी विकल्पों से विराम लेकर स्वयं में समा जाओ और हम तो स्वयं में जाते ही हैं ||३८||
इसके उपरांत पद्मप्रभमलधारिदेव एक छन्द स्वयं लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ( दोहा )
तीव्र मोहवश जीव जो किये अशुभतम कृत्य ।
उनका कर प्रतिक्रमण मैं रहूँ आतम में नित्य ।।१११ ।।
अत्यन्त तीव्रमोह की उत्पत्ति से जो कर्म पहले उपार्जित किये थे; उनका प्रतिक्रमण करके मैं सम्यग्ज्ञानमयी आत्मा में नित्य वर्तता हूँ ।
तात्पर्य यह है कि तीव्र मोहवश किये गये कर्मों से विरत होकर अपने निज भगवान आत्मा अपनेपन पूर्वक स्थिर होना ही परमार्थप्रतिक्रमण है । । १११ ।।
अब आगामी गाथा में यह कहते हैं कि आत्मा की आराधना ही प्रतिक्रमण है ।
गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
( हरिगीत )
विराधना को छोड़ जो आराधना में नित रहे ।
प्रतिक्रमणमय है इसलिए वह स्वयं ही प्रतिक्रमण है ॥८४॥
जो जीव विशेषरूप से विराधना छोड़कर आराधना में वर्तता है, वह जीव ही प्रतिक्रमण है; क्योंकि वह प्रतिक्रमणमय ही है।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
“यहाँ आत्मा की आराधना में वर्तते हुए जीव को ही प्रतिक्रमण कहा गया है। जो परमतत्त्वज्ञानी जीव निरंतर धारावाहीरूप से आत्माभिमुख होकर परिणामों द्वारा साक्षात् स्वभाव में स्थित होकर आत्माराधना में रत रहते हैं; वे निरपराध हैं । जो जीव आत्माराधना रहित हैं, वे अपराधी हैं । इसीलिए सम्पूर्णतया विराधना छोड़कर ह्न ऐसा कहा है ।