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नियमसार
(मालिनी) अलमलमतिजल्पैर्दुविकल्पैरनल्पै___रयमिह परमार्थश्चेत्यतां नित्यमेकः। स्वरसविसरपूर्णज्ञानविस्फूर्तिमात्रा
न खलु समयसारादुत्तरं किंचिदस्ति ।।३८॥ तथा हि ह्र
(आर्या) अतितीव्रमोहसंभवपूर्वार्जितं तत्प्रतिक्रम्य ।
आत्मनि सद्बोधात्मनि नित्यं वर्तेऽहमात्मना तस्मिन् ।।१११।। इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव ‘तथा आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा भी कहा गया है' ह ऐसा लिखकर एक छन्द उद्धृत करते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
(हरिगीत ) क्या लाभ है ऐसे अनल्प विकल्पों के जाल से। बस एक ही है बात यह परमार्थ का अनुभव करो|| क्योंकि निजरसभरित परमानन्द के आधार से।
कुछ भी नहीं है अधिक सुन लो इस समय के सार से||३८|| अधिक कहने से क्या लाभ है, अधिक दुर्विकल्प करने से भी क्या लाभ है ? यहाँ तो मात्र इतना ही कहना पर्याप्त है कि इस एक परमार्थस्वरूप आत्मा का ही नित्य अनुभव करो। निजरस के प्रसार से परिपूर्ण ज्ञान के स्फुरायमान होनेरूप समयसार से महान इस जगत में कुछ भी नहीं है।
इसप्रकार इस कलश में समयसाररूप शुद्धात्मा और समयसार नामक ग्रन्थाधिराज की महिमा बताई गई है। साथ में यह आदेश दिया गया है, उपदेश दिया गया है कि अब इस विकल्पजाल से मुक्त होकर निज आत्मा की शरण में जाओ! आत्मा के कल्याण का एकमात्र उपाय आत्मानुभव ही है; अन्य कुछ नहीं।
उक्त कलश का सार मात्र इतना ही है कि जो कुछ कहना था; वह विस्तार से कहा जा चुका है, इससे अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता । जिसकी समझ में आना होगा, उसकी समझ में आने के लिए, देशनालब्धि के लिए इतना ही पर्याप्त है; जिसकी समझ में नहीं आना है, उसके लिए कितना ही क्यों न कहो, कुछ भी होनेवाला नहीं है। अत: अब हम (आचार्यदेव) विराम १. समयसार : आत्मख्याति, छन्द २४४