________________
१८०
परिज्ञानानुष्ठानशुद्धनिश्चयस्वभावरत्नत्रयसंयुक्ताः; जिनेंद्रवदनारविंदविनिर्गतजीवादिसमस्त
पदार्थसार्थोपदेशशूराः; निखिलपरिग्रहपरित्यागलक्षणनिरंजननिजपरमात्मतत्त्वभावनोत्पन्नपरमवीतरागसुखामृतपानोन्मुखास्तत एव निष्कांक्षाभावनासनाथा :; एवंभूतलक्षणलक्षितास्ते जैनानामुपाध्याया इति ।
( अनुष्टुभ् )
रत्नत्रयमयान् शुद्धान् भव्यांभोजदिवाकरान् । उपदेष्टृनुपाध्यायान् नित्यं वंदे पुनः पुनः । । १०५ ।। वावारविप्पमुक्का चउव्विहाराहणासयारत्ता । णिग्गंथा णिम्मोहा साहू दे एरिसा होंति ।। ७५ ।। व्यापारविप्रमुक्ताः चतुर्विधराधनासदारक्ताः ।
निर्ग्रन्था निर्मोहा: साधवः एतादृशा भवन्ति ।। ७५।।
नियमसार
अखण्ड; अद्वैत; परमचिद्रूप आत्मा के श्रद्धान, ज्ञान और आचरणरूप शुद्धनिश्चय स्वभावरत्नत्रयवाले; जिनेन्द्र भगवान के मुखारविन्द से निकले हुए जीवादि सभी पदार्थों का उपदेश देने में शूरवीर; समस्त परिग्रह के परित्यागस्वभावी; निरंजन निज परमात्मतत्त्व की भावना से उत्पन्न होनेवाले; परमवीतरागसुखामृत के पान के सन्मुख होने से निष्कांक्ष भावनावाले मुनिराज जैनियों में उपाध्याय होते हैं।”
उक्त गाथा में उपाध्याय परमेष्ठी के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि दर्शनज्ञान - चारित्ररूप से परिणमित, सभी प्रकार की आकांक्षाओं से रहित और वस्तुस्वरूप को समझाने में शूरवीर मुनिराज उपाध्याय कहे जाते हैं। ये उपाध्याय परमेष्ठी मुनिसंघ में अध्यापन का कार्य करते हैं ॥७४॥
इसके उपरान्त टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव एक छन्द लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है
(दोहा)
वंदे बारम्बार हम भव्यकमल के सूर्य ।
उपदेशक तत्त्वार्थ के उपाध्याय वैडूर्य ||१०५ ॥
रत्नत्रयमय, शुद्ध, भव्यजीवरूपी कमलों को प्रफुल्लित करनेवाले सूर्य और उपदेश देनेवाले उपाध्याय परमेष्ठियों की मैं नित्य बारम्बार वंदना करता हूँ ।
इस छन्द में संतों को स्वाध्याय करानेवाले उपाध्याय परमेष्ठियों को नमस्कार किया गया है ।। १०५ ।।