________________
परमार्थप्रतिक्रमण अधिकार (गाथा ७७ से गाथा ९४ तक)
(वंशस्थ) नमोऽस्तु ते संयमबोधमूर्तये स्मरेभकुम्भस्थलभेदनाय वै ।
विनेयपंकेजविकाशभानवे विराजते माधवसेनसूरये ।।१०८।। अथ सकलव्यावहारिकचारित्रतत्फलप्राप्तिप्रतिपक्षशुद्धनिश्चयनयात्मकपरमचारित्रप्रतिपादनपरायणपरमार्थप्रतिक्रमणाधिकारः कथ्यते। तत्रादौ तावत् पंचरत्नस्वरूपमुच्यते । तद्यथाह्न
इस अधिकार की टीका आरंभ करते समय मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव मंगलाचरण के रूप में आचार्य माधवसेन को नमस्कार करते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
(हरिगीत) कामगज के कुंभथल का किया मर्दन जिन्होंने | विकसित करेंजो शिष्यगण के हृदयपंकज नित्य ही।। परम संयम और सम्यक्बोध की हैं मूर्ति जो।
हो नमन बारम्बार ऐसे सूरि माधवसेन को||१०८|| संयम और ज्ञान की मूर्ति, कामरूपी हाथी के कुंभस्थल को भेदनेवाले तथा शिष्यरूपी कमलों को विकसित करने में सूर्य के समान सुशोभित हे माधवसेनसूरि ! आपको नमस्कार हो।
जिन माधवसेन सूरि को नियमसार परमागम के टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव स्मरण कर रहे हैं, नमस्कार कर रहे हैं, संयम और ज्ञान की मूर्ति बता रहे हैं, कामगज के कुंभस्थल को भेदनेवाले कह रहे हैं और शिष्यरूपी कमलों को खिलानेवाले बता रहे हैं; यद्यपि वे माधवसेन आचार्य कोई साधारण व्यक्ति तो हो नहीं सकते, कोई प्रभावशाली आचार्य ही होने चाहिए; तथापि उनके संबंध में न तो विशेष जानकारी उपलब्ध है और न उनकी कोई कृति ही प्राप्त होती है। __उनके बारे में जैनेन्द्रसिद्धान्तकोश में मात्र इतना ही लिखा है कि वे माथुर संघ की गुर्वावली के अनुसार नेमिषेण के शिष्य और श्रावकाचार के कर्ता अमितगति के गुरु थे और उनका समय विक्रम संवत् १०२५ से १०७५ के बीच का था।
डॉ. नेमीचन्दजी ज्योतिषाचार्य के भगवान महावीर और उनकी आचार्य परम्परा नामक ग्रन्थ में भी उनके संदर्भ में कुछ नहीं लिखा गया। जो भी हो, पर वे ऐसे प्रभावक आचार्य