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शुद्धभाव अधिकार
णिग्गंथोणीरागो णिस्सल्लो सयलदोसणिम्मुक्को। णिक्कामो णिक्कोहो णिम्माणो णिम्मदो अप्पा ।।४४।।
निर्ग्रन्थो नीरागो निःशल्य: सकलदोषनिर्मुक्तः।।
नि:कामो नि:क्रोधो निर्मानो निर्मदः आत्मा ।।४४।। अत्रापि शद्धजीवस्वरूपमक्तम् । बाह्याभ्यन्तरचतुर्विंशतिपरिग्रहपरित्यागलक्षणत्वानिर्ग्रन्थः । सकलमोहरागद्वेषात्मकचेतनकर्माभावान्नीरागः। निदानमायामिथ्याशल्यत्रयाभावान्नि:शल्यः । शुद्धनिश्चयनयेन शुद्धजीवास्तिकायस्य द्रव्यभावनोकर्माभावात् सकलदोषनिर्मुक्तः । शुद्धनिश्चयनेयन निजपरमतत्त्वेऽपि वाञ्छाभावान्नि:कामः । निश्चयनयेन प्रशस्ताप्रशस्तसमस्तद्रव्यपरिणतेरभावान्नि:क्रोधः । निश्चयनयेन सदा परमसमरसीभावात्मकत्वानिर्मानः । निश्चयनयेननिःशेषतोऽन्तर्मुखत्वान्निर्मदः। उक्तप्रकारविशुद्धसहजसिद्धनित्यनिरावरणनिजकारणसमयसारस्वरूपमुपादेयमिति ।
विगत गाथा में आत्मा को निर्दण्डादिरूप से निरूपित किया गया है और अब इस गाथा में उक्त आत्मा को निर्ग्रथादि विशेषणों के माध्यम से स्पष्ट करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(हरिगीत) निर्ग्रन्थ है नीराग है नि:शल्य है निर्दोष है।
निर्मान-मद यह आतमा निष्काम है निष्क्रोध है।।४४|| यह आत्मा निर्ग्रन्थ है, नीराग है, निःशल्य है, सर्व दोषों से रहित है, निष्काम है, निष्क्रोध है, निर्मान है और निर्मद है।
इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न
“यहाँ इस गाथा में भी जीव के शुद्धस्वरूप का कथन किया गया है। शुद्धजीव बाह्याभ्यन्तर चौबीस प्रकार के परिग्रहों के परित्यागस्वरूप (अभावस्वरूप) होने से निर्ग्रन्थ है; सम्पूर्ण मोह-राग-द्वेषात्मक चेतन कर्मों (भावकर्मों) के अभाव से नीराग है; माया, मिथ्यात्व और निदान ह्न इन शल्यों के अभाव से निःशल्य है। शुद्धनिश्चयनय से शुद्धजीवास्तिकाय के द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म का अभाव होने से शुद्धजीव सर्वदोषविमुक्त है। शुद्धनिश्चयनय से उसे निजपरमतत्त्व की भी वांछा नहीं है; इसकारण वह शुद्ध जीव निष्काम है। निश्चयनय से प्रशस्त-अप्रशस्त समस्त परद्रव्यपरिणति के अभाव से निष्क्रोध, सदा परमसमरसीभावस्वरूप होने से निष्काम और निःशेषरूप से (पूर्णतः) अन्तर्मुख होने से निर्मद है। उपर्युक्त विशुद्ध, सहजसिद्ध, नित्यनिरावरण, निजकारणसमयसार स्वरूप भगवान आत्मा उपादेय है।"