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नियमसार
इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेवविरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ शुद्धभावाधिकारः तृतीय: श्रुतस्कन्धः ।
सहजज्ञान जयवंत है, सहजदृष्टि भी सदा जयवंत है और विशुद्ध सहज चारित्र ही सदा जयवंत है । पापसमूहरूपी कीचड़ की पंक्ति से रहित स्वरूपवाली सहजपरमतत्त्व में संस्थित चेतना भी सदा जयवंत है ।
अधिकार के अन्त में समागत इस कलश में रत्नत्रयरूप मुक्तिमार्ग की जयवंतताजीवन्तता को स्पष्ट करते हुए अन्तमंगलाचरण किया गया है ॥७५॥
शुद्धभावाधिकार की समाप्ति के अवसर पर टीकाकार जो पंक्ति लिखते हैं; उसका भाव इसप्रकार है ह्न
'इसप्रकार सुकविजनरूपी कमलों के लिए जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियों के विस्तार रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था, ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसार (आचार्य कुन्दकुन्द प्रणीत) की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में शुद्धभावाधिकार नामक तृतीय श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ ।”
यहाँ नियमसार एवं उसकी तात्पर्यवृत्ति टीका के साथ-साथ डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल कृत आत्मप्रबोधिनी हिन्दी टीका में शुद्धभावाधिकार नामक तृतीय श्रुतस्कन्ध भी समाप्त होता है ।
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व्यवहार के बिना निश्चय का प्रतिपादन नहीं होता और व्यवहार के निषेध बिना निश्चय की प्राप्ति नहीं होती । निश्चय के प्रतिपादन के लिए व्यवहार का प्रयोग अपेक्षित है और निश्चय की प्राप्ति के लिए व्यवहार का निषेध आवश्यक है। यदि व्यवहार का प्रयोग नहीं करेंगे तो वस्तु हमारी समझ में नहीं आवेगी, यदि व्यवहार का निषेध नहीं करेंगे तो वस्तु प्राप्त नहीं होगी।
व्यवहार का प्रयोग भी जिनवाणी में प्रयोजन से ही किया गया है और निषेध भी प्रयोजन से
ही किया गया है। जिनवाणी में बिना प्रयोजन एक शब्द का भी प्रयोग नहीं होता ।
ह्न परमभावप्रकाशक नयचक्र, पृष्ठ ५५