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व्यवहारचारित्राधिकार
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पोत्थइकमंडलाइंगहणविसग्गेसुपयतपरिणामो। आदावणणिक्खेवणसमिदी होदि त्ति णिद्दिट्ठा ।।६४।। पुस्तककमण्डलादिग्रहणविसर्गयो: प्रयत्नपरिणामः।
आदाननिक्षेपणसमितिर्भवतीति निर्दिष्टाः।।६४।। अत्रादाननिक्षेपणसमितिस्वरूपमुक्तम् । अपहृतसंयमिनां संयमज्ञानाद्युपकरणग्रहणविसर्गसमयसमुद्भवसमितिप्रकारोक्तिरियम् । उपेक्षासंयमिनांन पुस्तकमण्डलुप्रभृतयः, अतस्ते परमजिनमुनयः एकान्ततो निस्पृहाः, अत एव बाह्योपकरणनिर्मुक्ताः । अभ्यन्तरोपकरणं निजपरमतत्त्वप्रकाशदक्षं निरुपाधिस्वरूपसहजज्ञानमन्तरेण न किमप्युपादेयमस्ति । अपहृतसंयमधराणां परमागमार्थस्य पुनः पुनः प्रत्यभिज्ञानकारणं पुस्तकं ज्ञानोपकरणमिति यावत्, शौचौपकरणं
भक्तों के हाथ के अग्रभाग से दिया गया भोजन लेकर, पूर्ण ज्ञान-प्रकाशवाले आत्मा का ध्यान करके; इसप्रकार सम्यक् तप को तपकर सच्चे तपस्वी संतजन दैदीप्यमान मुक्तिरूपी वारांगना (स्त्री) को प्राप्त करते हैं।
इस छन्द में यही कहा गया है कि निश्चय-व्यवहार एषणासमिति के धनी तपस्वी मुनिराज मुक्ति को प्राप्त करते हैं।।८६।।
विगत गाथा में एषणासमिति की चर्चा करने के उपरान्त अब इस गाथा में आदाननिक्षेपणसमिति की चर्चा करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(हरिगीत) पुस्तक कमण्डल संत जन नित सावधानीपूर्वक।
आदाननिक्षेपणसमिति में ग्रहण-निक्षेपण करें।।६४|| पुस्तक, कमण्डल आदि रखने-उठाने संबंधी प्रयत्न परिणाम आदाननिक्षेपणसमिति है ह्न ऐसा कहा गया है।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न
“यहाँ आदाननिक्षेपणसमिति का स्वरूप कहा गया है। यह अपहृत संयमियों (व्यवहारसंयम या अपवादसंयम) को संयम और ज्ञानादिक के उपकरण उठाते-रखते समय उत्पन्न होनेवाली समिति का प्रकार कहा है। उपेक्षा संयमियों (निश्चयसंयम-उत्सर्गसंयम) के पुस्तक व कमण्डलादि नहीं होते; क्योंकि वे परमजिनमनि सम्पर्णतः निष्पह होते हैं। इसलिए वे बाह्य उपकरणों से रहित होते हैं। निजपरमात्मतत्त्व को प्रकाशन करने में दक्ष आभ्यन्तर उपकरणरूप निरुपाधिस्वरूप सहज ज्ञान के अतिरिक्त उन्हें अन्य कुछ भी उपादेय नहीं है। अपहृत संयमधरों को परमागम के अर्थ का पुनः पुनः प्रत्यभिज्ञान होने में कारणभूत