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व्यवहारचारित्राधिकार
तथा चोक्तं ह्न
णोकम्मकम्महारो लेप्याहारो य कवलमाहारो।
उज्जमणो विय कमसो आहारो छव्विहोणेयो।॥३०॥ अशुद्धजीवानां विभावधर्मं प्रति व्यवहारनयस्योदाहरणमिदम् । इदानीं निश्चयस्योदाहृतिरुच्यते । तद्यथा ह्न
जस्स अणेसणमप्पा तं पितवो तप्पडिच्छगासमणा।
अण्णं भिक्खमणेसणमध ते समणा अणाहारा ॥३१॥२ इसके बाद टीकाकार मुनिराज 'तथा चोक्तं ह्न तथा कहा भी' ह्न ऐसा कहकर एक गाथा प्रस्तुत करते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
(दोहा) लेपकवल मन ओज अर कर्म और नो कर्म।
छह प्रकार आहार के कहे गये जिनधर्म||३०|| नोकर्माहार, कर्माहार, लेपाहार, कवलाहार, ओजाहार और मनाहार ह्न इसप्रकार क्रम से आहार छह प्रकार का जानना।
अशुद्ध जीवों के विभावधर्म के संबंध में यह व्यवहारनय का उदाहरण है।।३०।। अब निश्चयनय का उदाहरण कहा जाता है तू
(हरिगीत) अरे भिक्षा मुनिवरों की एषणा से रहित हो।
वे यतीगण ही कहे जाते हैं अनाहारी श्रमण ||३१|| एषणा (आहार की इच्छा) रहित आत्मा को युक्ताहार भी तप ही है और आत्मोपलब्धि के लिए प्रयत्नशील श्रमणों की भिक्षा भी एषणा रहित होती है। इसलिए वे श्रमण अनाहारी ही हैं।
प्रवचनसार की इस गाथा में यह कहा गया है कि श्रमण दो प्रकार से युक्ताहारी सिद्ध होता है। पहली बात तो यह है कि उसका ममत्व शरीर पर न होने से वह उचित आहार ही ग्रहण करता है तू इसलिए युक्ताहारी है। दूसरी बात यह है कि ‘आहार ग्रहण करना आत्मा का स्वभाव ही नहीं है' ह्न ऐसे परिणामरूप योग मुनिराजों के निरन्तर वर्तता है; इसलिए वह श्रमण योगी है, उसका आहार युक्ताहार है, योगी का आहार है। तात्पर्य यह है कि वह एषणासमितिपूर्वक आहार लेने से और अनशनस्वभावी होने से मुनिराज युक्ताहारी ही हैं||३१|| १. अनुपलब्ध है
२. वही