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नियमसार
कृतकारितानुमोदनरहितं तथा प्रासुकं प्रशस्तं च ।
दत्तं परेण भक्तं संभुक्तिः एषणासमितिः ।।६३।। अत्रैषणासमितिस्वरूपमुक्तम् । तद्यथा ह्न मनोवाक्कायानां प्रत्येकं कृतकारितानुमोदनैः कृत्वा नव विकल्पा भवन्ति, न तै: संयुक्तमन्नं नवकोटिविशुद्धमित्युक्तम्; अतिप्रशस्तं मनोहरं, हरितकायात्मकसूक्ष्मप्राणिसंचारागोचरं प्रासुक मित्यभिहितम्; प्रतिग्रहोच्चस्थानपादक्षालनार्चनप्रणामयोगशुद्धिभिक्षाशुद्धिनामधेयैर्नवविधपुण्यैः प्रतिपत्तिं कृत्वा श्रद्धाशक्त्यलुब्धताभक्तिज्ञानदयाक्षमाऽभिधानसप्तगुणसमाहितेन शुद्धेन योग्याचारेणोपासकेन दत्तं भक्तं भुंजानः तिष्ठति यः परमतपोधनः तस्यैषणासमितिर्भवति । इति व्यवहारसमितिक्रमः । अथ निश्चयतो जीवस्याशनं नास्ति परमार्थतः, षट्प्रकारमशनं व्यवहारत: संसारिणामेव भवति ।
ईर्यासमिति और भाषासमिति के उपरान्त अब एषणासमिति की चर्चा करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(हरिगीत) स्वयं करना कराना अनुमोदना से रहित जो।
निर्दोष प्रासुक भुक्ति ही है एषणा समिति अहो।।६३|| स्वयं की कृत, कारित, अनुमोदना से रहित, पर के द्वारा दिया हुआ प्रासुक और प्रशस्त भोजन करनेरूप सम्यक् आहार ग्रहण एवं तत्संबंधी शुभभाव एषणासमिति है।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न
“यहाँ एषणासमिति का स्वरूप कहा है। वह इसप्रकार है ह्न मन, वचन और काय ह्न इन तीनों का कृत, कारित और अनुमोदना ह्न इन तीनों से गुणा करने पर नौ भेद हो जाते हैं। जिस भोजन में मुनिराजों की उक्त नौ प्रकारों की किसी भी रूप में संयुक्तता हो, वह भोजन विशुद्ध नहीं है ऐसा शास्त्रों में कहा है। हरितकाय के सूक्ष्म प्राणियों के संचार से अगोचर अति प्रशस्त अन्न प्रासुक अन्न है ह ऐसा शास्त्रों में कहा है।
पड़गाहन, उच्चस्थान, पादप्रक्षालन, अर्चन, प्रणाम, मन-वचन-काय की शुद्धि और भिक्षा शुद्धि ह्न इन नवधा भक्ति से आदर करके; श्रद्धा, शक्ति, अलुब्धता, भक्ति, ज्ञान, दया, और क्षमा ह्नदाता के इन सात गुणों सहित शुद्ध योग्य आचारवाले उपासक द्वारा दिया गया आहार जो परम तपोधन लेते हैं, उसे एषणासमिति कहते हैं। यह व्यवहार एषणासमिति है। निश्चय एषणासमिति की तो ऐसी बात है कि जीव के परमार्थतः तो भोजन होता ही नहीं है। छह प्रकार का भोजन तो व्यवहार से संसारियों के ही होता है।"
उक्त गाथा में एषणासमिति का स्वरूप स्पष्ट किया गया है। जिस आहार से आहार ग्रहण करनेवाले मुनिराज का नवकोटि से किसी भी प्रकार का संबंध न हो; ऐसा अनुद्दिष्ट, प्रासुक आहार ४६ दोष और ३२ अन्तराय टालकर विधिपूर्वक ग्रहण करना, एषणासमिति है।।६३||