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व्यवहारचारित्राधिकार
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(हरिणी) समितिसमितिं बुद्ध्वा मुक्त्यंगनाभिमतामिमां भवभवभयध्वांतप्रध्वंसपूर्णशशिप्रभाम् । मुनिप तव सद्दीक्षाकान्तासखीमधुना मुदा जिनमततप:सिद्धं याया: फलं किमपि ध्रुवम् ।।८९।।
(द्रुतविलंबित) समितिसंहतित: फलमुत्तमं सपदि याति मुनिः परमार्थतः । न च मनोवचसामपि गोचरं किमपि केवलसौख्यसुधामयम् ।।१०।।
(रोला) दीक्षाकान्तासखी परमप्रिय मुक्तिरमा को।
भवतपनाशक चन्द्रप्रभसम श्रेष्ठ समिति जो॥ उसे जानकर हे मुनि तुम जिनमत प्रतिपादित।
तप से होनेवाले फल को प्राप्त करोगे||८९।। जो मुक्तिरूपी अंगना को प्रिय है, भव-भव के भयरूपी अंधकार को नष्ट करने के लिए पूर्ण चन्द्रमा की प्रभा के समान है, तेरी दीक्षारूपी कान्ता की सखी है; सभी समितियों में श्रेष्ठ इस समिति को प्रमोद से जानकर हे मुनिराज ! तुम जिनमत निरूपित तप से सिद्ध होनेवाले ध्रुव फल को प्राप्त करोगे।
इस छन्द में भी यही कहा गया है कि मुक्तिरूपी स्त्री को प्रिय, भवभय के अंधकार को नष्ट करने के लिए चन्द्रमा के समान एवं दीक्षारूपी कान्ता की सखी इस समिति को जानकर तुम जिनमत में निरूपित तप के फल में प्राप्त होनेवाले फलों को प्राप्त करोगे ।।८९।। तीसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(दोहा) समिति सहित मुनिवरों को उत्तम फल अविलम्ब |
केवल सौख्य सुधामयी अकथित और अचिन्त्य ||९०|| मुनिराज समिति की संगति द्वारा वस्तुत: मन के अचिन्त्य और वाणी से अकथनीय केवलसुखरूपी अमृतमय उत्तम फल शीघ्र प्राप्त करते हैं।
इस छन्द में भी यह कहा जा रहा है कि मुनिराज इस समिति के फल में अचिन्त्य और अकथनीय उत्तमसुख को प्राप्त करते हैं ।।१०।।