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व्यवहारचारित्राधिकार
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तथा हित
(मन्दाक्रान्ता) त्यक्त्वा वाचं भवभयकरी भव्यजीव: समस्तां ध्यात्वा शुद्धं सहजविलसच्चिमत्कारमेकम् । पश्चान्मुक्तिं सहजमहिमानंदसौख्याकरी तां
प्राप्नोत्युच्चैः प्रहतदुरितध्वांतसंघतारूपः ।।१२।। बंधणछेदणमारण आकुंचण तह पसारणादीया। कायकिरियाणियत्ती णिहिट्ठा कायगुप्ति त्ति ।।६८।।
बंधनछेदनमारणाकुञ्चनानि तथा प्रसारणादीनि।।
कायक्रियानिवृत्तिः निर्दिष्टा कायगुप्तिरिति ।।६८।। इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव ‘तथा हि' लिखकर एक छन्द स्वयं लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
(रोला) भवभयकारी वाणी तज शुध सहज विलसते।
एकमात्र कर ध्यान नित्य चित् चमत्कार का। पापतिमिर का नाश सहज महिमा निजसुख की।
___ मुक्तिपुरी को प्राप्त करें भविजीव निरन्तर ||९२।। भवभय करनेवाली संपूर्ण वाणी को छोड़कर, शुद्ध सहज विलासमान एक चैतन्यचमत्कार का ध्यान करके, फिर पापरूपी अंधकार समूह को नष्ट करके भव्यजीव सहज महिमावंत अतीन्द्रिय आनन्द और परमसुख की खानरूप मुक्ति को अतिशयरूप से प्राप्त करते हैं।
इस छन्द में भी यही कहा गया है कि वचनगुप्ति के बल से संसार-भ्रमण का भय पैदा करनेवाली वाणी को छोड़कर, शुद्धात्मा का ध्यान करके यह भव्यजीव पापरूप अंधकार का नाश कर सहज महिमावंत सुख की खान मुक्ति को प्राप्त करता है।।९२||
विगत गाथा में वचनगुप्ति की चर्चा करके अब इस गाथा में कायगुप्ति की चर्चा करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(हरिगीत ) मारन प्रसारन बंध छेदन और आकुंचन सभी। कायिक क्रियाओं की निवृत्ति कायगुप्ति जिन कही।।६८||