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नियमसार
कालुस्समोहसण्णारागद्दोसाइअसुहभावाणं । परिहारो मणुगुत्ती ववहारणयेण परिकहियं ।।६६।। कालुष्यमोहसंज्ञारागद्वेषाद्यशुभभावानाम् ।
रहारो मनोगुप्ति: व्यवहारनयेन परिकथिता ॥६६॥ व्यवहारमनोगुप्तिस्वरूपाख्यानमेतत् । क्रोधमानमायालोभाभिधानैश्चतुर्भिः कषायैः क्षुभितं चित्तं कालुष्यम् । मोहो दर्शनचारित्रभेदाद् द्विधा । संज्ञा आहारभयमैथुनपरिग्रहाणां भेदाश्चतुर्धा । रागः प्रशस्ताप्रशस्तभेदेन द्विविधः। असह्यजनेषु वापि चासह्यपदार्थसार्थेषु वा वैरस्य परिणामो द्वेषः । इत्याद्यशुभपरिणामप्रत्ययानां परिहार एव व्यवहारनयाभिप्रायेण मनोगुप्तिरिति।
(वसन्ततिलका) गुप्तिर्भविष्यति सदा परमागमार्थ
चिंतासनाथमनसो विजितेन्द्रियस्य । बाह्यान्तरंगपरिषंगविवर्जितस्य
श्रीमजिनेन्द्रचरणस्मरणान्वियतस्य ।।११।। व्यवहारचारित्राधिकार की विगत १० गाथाओं में पाँच महाव्रत और पाँच समितियों का विवेचन करने के उपरान्त अब तीन गुप्तियों की चर्चा करते हैं। उनमें से पहली गाथा में पहली गुप्ति मनोगुप्ति का स्वरूप बताया गया है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है तू
( हरिगीत ) मोह राग द्वेष संज्ञा कलषता के भाव जो।
इन सभी का परिहार मनगुप्ति कहा व्यवहार से ||६६|| कलुषता, मोह, संज्ञा, राग-द्वेष आदि अशुभभावों के परिहार को व्यवहारनय से मनोगुप्ति कहा है।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न
“यह व्यवहार मनोगुप्ति के स्वरूप का कथन है। क्रोध, मान, माया और लोभ ह्न इन चार कषायों से चित्त की क्षुब्धता कलुषता है । दर्शनमोह और चारित्रमोह के भेद से मोह दो प्रकार का है। आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा और परिग्रहसंज्ञा के भेद से संज्ञा चार प्रकार की है। प्रशस्तराग और अप्रशस्त राग के भेद से राग दो प्रकार का है। असह्य जनों या असह्य पदार्थों के प्रति बैर का परिणाम द्वेष है। इत्यादि अशुभपरिणामप्रत्ययों का परिहार ही व्यवहारनय के अभिप्राय से मनोगुप्ति है।"