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नियमसार
तस्य खलु प्रतिष्ठापनसमितिरिति । नान्येषां स्वैरवृत्तीनांयतिनामधारिणांकाचित समितिरिति ।
(मालिनी) समितिरिह यतीनां मुक्तिसाम्राज्यमूलं __ जिनमतकुशलानां स्वात्मचिंतापराणाम् । मधुसखनिशितास्त्रव्रातसंभिन्नचेतःह्न
सहितमुनिगणानां नैव सा गोचरा स्यात् ।।८८।। को सर्व ओर से भाता है; उस परमसंयमी के प्रतिष्ठापनासमिति होती है। दूसरे स्वच्छन्दवृत्तिवाले यतिनामधारियों के कोई समिति नहीं होती।"
इस समिति में यह बताया गया है कि छठवें-सातवें गुणस्थान में निरन्तर आने-जाने वाले मुनिराज जब सातवें गुणस्थान में होते हैं; तब तो उनके निश्चयप्रतिष्ठापनासमिति होती है, परन्तु छठवें गुणस्थान में हों, तब उन्हें मल-मूत्रादि क्षेपण का विकल्प हो सकता है।
ऐसी स्थिति में उनके भाव और आचरण ऐसा होता है कि वे परोपरोध से रहित निर्जन्तु प्रासुक भूमि पर अच्छी तरह देखकर सावधानीपूर्वक मल-मूत्र का क्षेपण करते हैं। उनकी उक्त क्रिया और तत्संबंधी शुभभाव व्यवहारप्रतिष्ठापनसमिति है।।६५|| - इसके बाद टीकाकार मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव तीन छन्द लिखते हैं, जिनमें से पहले छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
(हरिगीत) आत्मचिंतन में परायण और जिनमत में कुशल | उन यतिवरों को यह समिति है मूल शिव साम्राज्य की। कामबाणों से विंधे हैं हृदय जिनके अरे उन ।
मुनिवरों के यह समिति तो हमें दिखती ही नहीं।।८८|| जिनमत में कुशल और स्वात्मचिन्तन में परायण मुनिवरों को यह समिति मुक्तिसाम्राज्य का मूल है; किन्तु कामदेव के तीक्ष्णबाणों से विंधे हुए हृदयवाले मुनिगणों को तो यह समिति होती ही नहीं है।
इस छन्द में मात्र इतना ही कहा गया है कि जिनसिद्धान्त में कुशल, उसके मर्म को गहराई से समझनेवाले एवं अपने आत्मा के चिंतन में प्रवीण मुनिराजों को यह समिति मुक्ति का साम्राज्य दिलानेवाली है; किन्तु इच्छाओं के गुलाम कामान्ध लोगों के तो यह होती ही नहीं है।।८८।।
दूसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र