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इह हि पंचमव्रतस्वरूपमुक्तम् । सकलपरिग्रहपरित्यागलक्षणनिजकारणपरमात्मस्वरूपावस्थितानां परमसंयमिनां परमजिनयोगीश्चराणां सदैव निश्चयव्यवहारात्मकचारुचारित्रभरं वहतां, बाह्याभ्यन्तरचतुर्विंशतिपरिग्रहपरित्याग एव परंपरया पंचमगतिहेतुभूतं पंचमव्रतमिति । तथा चोक्तं समयसारे ह्र
मज्झं परिग्गहो जदि तदो अहमजीवदं तु गच्छेज्ज । णादेव अहं जम्हा तम्हा ण परिग्गहो मज्झ ।। २८ ।।
हरिगीत )
निरपेक्ष भावों पूर्वक सब परिग्रहों का त्याग ही । चारित्रधारी मुनिवरों का पाँचवाँ व्रत कहा है ॥६०॥
नियमसार
पर की अपेक्षा से रहित शुद्धनिरपेक्ष भावनापूर्वक सभी प्रकार के परिग्रहों के त्याग संबंधी शुभभाव के साथ भूमिका के योग्य चारित्र का भार वहन करनेवाले मुनिवरों को पाँचवाँ परिग्रहत्याग व्रत होता है।
इस गाथा के भाव टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
“यहाँ परिग्रहत्याग नामक पाँचवें व्रत का स्वरूप कहा गया है । सम्पूर्ण परिग्रह के त्यागरूप है स्वरूप जिसका, उस निजरूप कारण परमात्मा के स्वरूप में स्थित; निश्चयव्यवहाररूप चारु चारित्र के भार को वहन करनेवाले, परमसंयमी, परमजिनयोगीश्वरों का; बाह्याभ्यन्तर २४ प्रकार के परिग्रहों का परित्याग ही, परम्परा से पंचमगति का हेतुभूत पाँचवाँ परिग्रहत्यागव्रत है ।"
इसप्रकार इस गाथा में यही कहा गया है कि अपरिग्रहस्वभावी निजकारणपरमात्मा में स्थित, निश्चय-व्यवहारचारित्र के धनी सन्तों का सभी प्रकार के चौबीसों परिग्रहों का त्याग ही परिग्रहत्याग महाव्रत है ।। ६० ।।
इसके बाद ‘तथा समयसार में कहा है' ह्र ऐसा लिखकर टीकाकार मुनिराज समयस की एक गाथा उद्धृत करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
( हरिगीत )
यदि परिग्रह मेरा बने तो मैं अजीव बनूँ अरे ।
पर मैं तो ज्ञायकभाव हूँ इसलिए पर मेरे नहीं ||२८||
यदि परद्रव्यरूप परिग्रह मेरा हो तो मैं अजीवत्व को प्राप्त हो जाऊँ। चूँकि मैं तो ज्ञाता ही हूँ; इसलिए परद्रव्यरूप परिग्रह मेरा नहीं है ।
१. समयसार, गाथा २०८