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नियमसार
पासुगमग्गेण दिवा अवलोगंतो जुगप्पमाणं हि । गच्छइ पुरदो समणो इरियासमिदी हवे तस्स ।।६१।। प्रासुकमार्गेण दिवा अवलोकयत् युगप्रमाणं खलु ।
गच्छति पुरतः श्रमण: ईर्यासमितिर्भवेत्तस्य ।।६१।। अत्रेर्यासमितिस्वरूपमुक्तम् । य: परमसंयमी गुरुदेवयात्रादिप्रशस्तप्रयोजनमुद्दिश्यैकयुगप्रमाणं मार्गम् अवलोकयन् स्थावरजंगमप्राणिपरिरक्षार्थं दिवैव गच्छति, तस्य खलु परमश्रमणस्येर्यासमितिर्भवति । व्यवहारसमितिस्वरूपमुक्तम् । इदानीं निश्चयसमितिस्वरूपमुच्यते। अभेदानुपचाररत्नत्रयमार्गेण परमधर्मिणमात्मानं सम्यग् इता परिणति: समितिः। अथवा निजपरमतत्त्व निरतसहजपरमबोधादिपरमधर्माणां संहतिः समितिः । इति निश्चयव्यवहारसमितिभेदं बुद्ध्वा तत्र परमनिश्चयसमितिमुपयातु भव्य इति ।
इस ६१वीं गाथा में ईर्यासमिति नामक पहली समिति की चर्चा करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(हरिगीत) जिन श्रमण धुरा प्रमाण भूलख चले प्रासुक मार्ग से।
दिन में करें विहार नित ही समिति ईर्या यह कही ।।६१|| जो श्रमण प्रासुक (निर्जन्तु) मार्ग पर दिन में धुरा प्रमाण अर्थात् चार हाथ जमीन देखकर चलते हैं; उन मुनिराजों के उक्त सावधानी पूर्वक होनेवाले गमन (विहार) और तत्संबंधी भावों को ईर्यासमिति कहते हैं।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
“यहाँ ईर्यासमिति का स्वरूप कहा गया है। जो परमसंयमी मुनिराज, देवदर्शन या गुरु से मिलने आदि के प्रशस्त प्रयोजनवश स्थावर-जंगम जीवों की रक्षा के हेतु से चार हाथ आगे मार्ग को देखते हुए दिन में विहार करते हैं; उनके ईर्यासमिति होती है। यह व्यवहार समिति का स्वरूप है, अब आगे निश्चयसमिति का स्वरूप कहते हैं। अभेद-अनुपचार रत्नत्रयमार्ग से परमधर्मी निजात्मा के प्रति सम्यक् इति-गति-परिणति ही निश्चय समिति है अथवा निजपरमतत्त्व में लीन सहज परमज्ञानादि परमधर्मों की संहति-मिलन-संगठन ही निश्चयसमिति है। इसप्रकार निश्चय और व्यवहाररूप समिति के भेदों को जानकर उनमें से हे भव्यजीव! परमनिश्चयसमिति को प्राप्त करो।"
इस गाथा और उसकी टीका में निश्चय-व्यवहार ईर्यासमिति का स्वरूप समझाया गया है। अपने आत्मा में श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र की परिणति ही निश्चय ईर्यासमिति है और