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व्यवहारचारित्राधिकार
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तथा हि ह्न
(हरिणी) त्यजतु भवभीरुत्वाद्भव्यः परिग्रहविग्रहं निरुपमसुखावासप्राप्त्यै करोतु निजात्मनि । स्थितिमविचला शर्माकारां जगज्जनदुर्लभां
न च भवति महाच्चित्रं चित्रं सतामसताभिदम् ।।८०।। उक्त गाथा में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में यह कहा गया है कि यदि तू जड़ परिग्रह को अपना मानेगा तो तू अपनी मान्यता में जड़ हो जावेगा; क्योंकि जड़ का स्वामी तो जड़ ही होता है। इसलिए हे भव्यप्राणी परिग्रह के स्वामित्व की मान्यता को जड़मूल से उखाड़ फेंक||२८||
इसके बाद 'तथा हि' लिखकर मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव एक छन्द स्वयं लिखते हैं, जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(हरिगीत) हे भव्यजन ! भवभीरुता बस परिग्रह को छोड़ दो। परमार्थ सुख के लिए निज में अचलता धारण करो।। जो जगतजन को महादुर्लभ किन्तु सज्जन जनों को।
आश्चर्यकारी है नहीं आश्चर्य दुर्जन जनों को।।८०|| हे भव्यजीव ! भवभय के कारण परिग्रह विस्तार को छोड़ो और निश्चयसुख के आवास (घर) की प्राप्ति के लिए, निज आत्मा में, जगतजनों में दुर्लभ ऐसी सुखकर अविचल स्थिरता धारण करो।
यह अविचल स्थिरता धारण करना सत्पुरुषों को कोई आश्चर्य की बात नहीं है; पर असत्पुरुषों को तो आश्चर्य की बात है ही। उक्त कलश में मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव भवभ्रमण से भयभीत भव्यों को प्रेरणा दे रहे हैं कि यदि तुम भवभ्रमण से बचना चाहते हो तो अनंत संसार के कारणरूप इन बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रहों का परित्याग कर दो और अपने आत्मा में अपनापन स्थापित करो, उसे गहराई से जानो, निजरूप जानो और उसी में जम जावो, रम जावो; क्योंकि सुखी होने का एकमात्र उपाय यही है।
यद्यपि यह कार्य असत्पुरुषों को इतना आसान नहीं है; तथापि सत्पुरुषों के लिए तो सहज ही है। इसलिए हे सत्पुरुषो ! इस दिशा में आगे बढ़ो।।८०।।
विगत पाँच गाथाओं में पाँच महाव्रतों की चर्चा की गई है; अब आगामी पाँच गाथाओं में पाँच समितियों की चर्चा करेंगे।