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व्यवहारचारित्राधिकार
( आर्या ) निश्चयरूपां समितिं सूते यदि मुक्तिभाग्भवेन्मोक्षः । बत न च लभतेऽपायात् संसारमहार्णवे भ्रमति । । ८४ । । पेसुण्णहासकक्कसपरणिंदप्पप्पसंसियं वयणं । परिचत्ता सपरहिदं भासासमिदी वदंतस्स ।। ६२ ।।
पैशून्यहास्यकर्कशपरनिन्दात्मप्रशंसितं वचनम् । परित्यक्त्वा स्वपरहितं भाषासमितिर्वदतः ।। ६२ ।। अत्र भाषासमितिस्वरूपमुक्तम् । कर्णेजपमुखविनिर्गतं नृपतिकर्णाभ्यर्णगतं चैकपुरुषस्य चौथे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
( दोहा )
जो पाले निश्चय समिति, निश्चित मुक्ति जाँहि ।
समिति भ्रष्ट तो नियम से भटकें भव के माँहि ॥८४॥
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यदि जीव निश्चयरूप समिति को उत्पन्न करता है, प्राप्त करता है, धारण करता है तो वह मुक्ति को अवश्य प्राप्त करता है, मोक्षरूप होता है; परन्तु अरे रे समिति के नाश से / अभाव से मुक्ति को प्राप्त नहीं कर पाता, संसाररूप महासागर में भटकता रहता है, गोता लगाता रहता है ।
इस छन्द में पूर्व छन्द की बात को ही दुहराया गया है कि निश्चय -समिति के धारक अवश्य ही मुक्ति की प्राप्ति करते हैं और समितियों की उपेक्षा करनेवाले भव-भव में भटकते हैं ।। ८४ ।।
विगत गाथा, उसकी टीका और उसमें समागत छन्दों में ईर्यासमिति का स्वरूप और महिमा बताने के बाद अब इस गाथा में भाषा समिति का स्वरूप स्पष्ट करते हैं ।।
गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
( हरिगीत )
परिहास चुगली और निन्दा तथा कर्कश बोलना ।
यह त्यागना ही समिति दूजी स्व-पर हितकर बोलना || ६२||
चुगली करना, हँसी उड़ाना, कठोर भाषा का प्रयोग करना, दूसरों की निन्दा करना और अपनी प्रशंसा करना ह्न इन कार्यों के त्यागी और स्वपरहितकारी वचन बोलनेवाले के भाषा समिति होती है।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “यहाँ भाषा समिति का स्वरूप कहा गया है । चुगलखोर मनुष्य के मुँह से निकले हुए