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व्यवहारचारित्र अधिकार
(गाथा ५६ से गाथा ७६ तक) अथेदानीं व्यवहारचारित्राधिकार उच्यतेह्न
कुलजोणिजीवमग्गणठाणाइसु जाणिऊण जीवाणं । तस्सारंभणियत्तणपरिणामो होइ पढमवदं ।।५६।।
कुलयोनिजीवमार्गणास्थानादिषु ज्ञात्वा जीवानाम् ।
तस्यारम्भनिवृत्तिपरिणामो भवति प्रथमव्रतम् ।।५६।। अहिंसाव्रतस्वरूपाख्यानमेतत् । कुलविकल्पो योनिविकल्पश्च जीवमार्गणास्थानविकल्पाश्च प्रागेव प्रतिपादिताः। अत्र पुनरुक्तिदोषभयान्न प्रतिपादिताः । तत्रैव तेषां भेदान् बुद्ध्वा तद्रक्षापरिणतिरेव भवत्यहिंसा। तेषां मृतिर्भवतु वा न वा, प्रयत्नपरिणाममन्तरेण सावधपरिहारो न भवति । अत एव प्रयत्नपरे हिंसापरिणतेरभावादहिंसाव्रतं भवतीति ।
जीवाधिकार, अजीवाधिकार एवं शुद्धभावाधिकार के उपरान्त अब व्यवहारचारित्राधिकार आरंभ करते हैं। इस अधिकार में अहिंसादि पंच व्रतों की चर्चा करते हैं। सबसे पहले ५६वीं गाथा में अहिंसाव्रत की चर्चा है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
(हरिगीत) कुल योनि जीवस्थान मार्गणथान जिय के जानकर
उन्हीं के आरंभ से बचना अहिंसाव्रत कहा।।५६|| कल, योनि, जीवस्थान और मार्गणास्थान आदि को जानकर, उनके आरंभ से निवत्तिरूप परिणाम पहला (अहिंसा) व्रत है।
इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न
“यह अहिंसाव्रत के स्वरूप का कथन है। कुलभेद, योनिभेद, जीवस्थान और मार्गणास्थान के भेद पहले ४२वीं गाथा की टीका में कहे गये हैं। यहाँ पुनरुक्ति दोष के भय से उनके बारे में कुछ भी नहीं कहा जा रहा है। वहाँ कहे गये भेदों को जानकर उनकी रक्षा करने के भावरूप परिणति ही अहिंसाव्रत है। उन जीवों का मरण हो या न हो; प्रयत्नरूप परिणाम के बिना सावध का परिहार नहीं होता। अत: प्रयत्नपरायण व्यक्ति को ही हिंसा परिणति का अभाव होने से अहिंसाव्रत होता है।"
इस गाथा में अहिंसा का स्वरूप स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि जीवों का घात हो