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( शालिनी ) वक्ति व्यक्तं सत्यमुच्चैर्जनो यः स्वर्गस्त्रीणां भूरिभोगैकभाक् स्यात् । अस्मिन् पूज्यः सर्वदा सर्वसद्भिः
सत्यासत्यं चान्यदस्ति व्रतं किम् ।।७७।।
गामे वा यरे वारण्णे वा पेच्छिऊण परमत्थं ।
यदि गणभावं तिदियवदं होदि तस्सेव ।। ५८ ।।
नियमसार
मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण व प्रत्याख्यानावरण संबंधी राग-द्वेष के अभाव में मुनिराजों के असत्यभाषण के परिणाम ही नहीं होते; इसकारण उनके असत्यभाषण होता ही नहीं है। यही उनका असत्यत्याग महाव्रत है ।। ५७ ।।
इसके बाद पद्मप्रभमलधारिदेव एक छन्द लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है
( हरिगीत )
पुरुष
जो बोलें सत्य अति स्पष्ट वे सब स्वर्ग की । देवांगनाओं के सुखों को भोगते भरपूर हैं । इस लोक में भी सज्जनों से पूज्य होते वे पुरुष ।
इसलिए इस सत्य से बढकर न कोई व्रत कहा ॥७७॥
जो पुरुष अति स्पष्टरूप से सत्य बोलते हैं, वे स्वर्ग की देवांगनाओं के सुख के भागी होते हैं और इस लोक में भी सभी सत्पुरुषों से पूज्य होते हैं । इसीलिए तो कहते हैं कि क्या इस सत्य से बढकर भी कोई व्रत है ।
सत्य महाव्रत के फल का निरूपण करते हुए उक्त छन्द में अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि झूठ नहीं बोलने और सदा सत्य बोलने का भाव शुभभाव है; अत: उसके फल में परलोक में देवांगनाओं से भरे स्वर्ग की प्राप्ति होती है और इहलोक में पूज्यपना प्राप्त होता है; इसलिए इससे बढकर कोई व्रत नहीं है ।।७७॥
विगत गाथा में सत्यव्रत की बात की है और अब इस गाथा में अचौर्यव्रत की बात करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है
( हरिगीत ) ग्राम में वन में नगर में देखकर परवस्तु जो ।
उसके ग्रहण का भाव त्यागे तीसरा व्रत उसे हो ॥५८॥