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व्यवहारचारित्राधिकार
रागेण व दोसेण व मोहेण व मोसभासपरिणामं ।
जो पजहदि साहु सया बिदियवदं होइ तस्सेव । ५७ ।। रागेण व द्वेषेण वा मोहेन वा मृषाभाषापरिणामं ।
यः प्रजहाति साधुः सदा द्वितीयव्रतं भवति तस्यैव ।। ५७ ।।
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सत्यव्रतस्वरूपाख्यानमेतत् । अत्र मृषापरिणामः सत्यप्रतिपक्ष:, स च रागेण वा द्वेषेणवा मोहेन वा जायते । सदा यः साधुः आसन्नभव्यजीवः तं परिणामं परित्यज तस्य द्वितीयव्रतं भवति इति ।
इसके बाद पद्मप्रभमलधारिदेव एक छन्द स्वयं लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार हैह्र ( हरिगीत )
त्रसघात के परिणाम तम के नाश का जो हेतु है । और थावर प्राणियों के विविध वध से दूर है॥ आनन्द सागरपूर सुखप्रद प्राणियों को लोक के । वह जैनदर्शन जगत में जयवंत वर्ते नित्य ही ॥ ७६ ॥
जो जैनधर्म त्रसघात के परिणामरूप अंधकार के नाश का हेतु है, सम्पूर्ण लोक के जीवसमूह को सुख देनेवाला है, एकेन्द्रिय अर्थात् स्थावर जीवों की अनेकप्रकार की हिंसा से बहुत दूर है और सुन्दर सुख सागर की बाढ है; वह जैनधर्म जगत में जयवंत वर्तता है ।
इस छन्द में अहिंसाव्रत का उपसंहार करते हुए कहा गया है कि त्रसघात से रहित, स्थावर जीवों के घात से विरक्त, आनन्दसागर अहिंसामयी जिनधर्म जयवंत वर्तता है और निरन्तर जयवंत वर्तता रहे ।। ७६ ।।
विगत गाथा में अहिंसाव्रत के स्वरूप का विवेचन किया गया है और अब इस गाथा में सत्यव्रत के स्वरूप का कथन करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न ( हरिगीत )
मोह एवं राग-द्वेषज मृषा भाषण भाव को ।
त्यागते जो साधु उनके सत्यभाषण व्रत कहा ॥५७॥
मोह से अथवा राग-द्वेष से होनेवाले झूठ बोलने के भावों को जो साधु छोड़ते हैं; उन साधुओं को दूसरा व्रत होता है ।
इस गाथा के भाव को टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
“यह सत्यव्रत के स्वरूप का कथन है । यहाँ ऐसा कहा गया है कि सत्य का प्रतिपक्षी परिणाम मृषापरिणाम है । वे मृषापरिणाम राग से, द्वेष से और मोह से होते हैं। जो आसन्न भव्य जीव साधु उक्त परिणामों को त्याग देता है; उस साधु को दूसरा व्रत होता है । "