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नियमसार
हेयोपादेयत्यागोपादानलक्षणकथनमिदम् । ये केचिद् विभावगुणपर्यायास्ते पूर्व व्यवहारनयादेशादुपादेयत्वेनोक्ता: शुद्धनिश्चयनयबलेन हेया भवन्ति । कुत: ? परस्वभावत्वात्, अत एव परद्रव्यं भवति । सकलविभावगुणपर्यायनिर्मुक्तं शुद्धान्तस्तत्त्वस्वरूपं स्वद्रव्यमुपादेयम् । अस्य खलु सहजज्ञानसहजदर्शनसहजचारित्रसहजपरमवीतरागसुखात्मकस्य शुद्धान्तस्तत्त्वस्वरूपस्याधारः सहजपरमपारिणामिकभावलक्षणकारणसमयसार इति। तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिःह्न
शार्दूलविक्रीडित) सिद्धान्तोऽमुदात्तचित्तचरितैर्मोक्षार्थिभिः सेव्यतां शुद्धं चिन्मयमेकमेव परमं ज्योतिः सदैवास्म्यहम् । एते ये तु समुल्लसंति विविधा भावा: पृथग्लक्षणा
स्तेऽहं नास्मि यतोऽत्र ते मम परद्रव्यं समग्रा अपि ॥२५॥ इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न
“यह हेयोपादेय अथवा त्याग-ग्रहण के स्वरूप का कथन है। पहले ४९वीं गाथा में जिन विभाव गुणपर्यायों को व्यवहारनय से उपादेय कहा था; वे सभी विभावगुणपर्यायें शुद्धनिश्चयनय से हेय हैं; क्योंकि वे पर-स्वभाव हैं; इसलिए परद्रव्य हैं। तथा सभी प्रकार की विभावगुणपर्यायों से रहित शुद्ध अन्त:तत्त्वरूप अपना आत्मा स्वद्रव्य होने से उपादेय है। वस्तुत: बात यह है कि सहजज्ञान, सहजदर्शन, सहजचारित्र, सहजपरमवीतरागसुखात्मक शुद्ध अन्त:तत्त्वस्वरूप स्वद्रव्य का आधार सहजपरमभावलक्षणवाला कारणसमयसार है।"
इसप्रकार इस गाथा में यह कहा गया है कि पर और पर्याय से रहित, परमशुद्धनिश्चयनय का विषयभूत, त्रिकालीध्रुव अपना आत्मा ही एकमात्र उपादेय है, अपनापन स्थापित करने योग्य है, आराधना करने योग्य है, ध्यान का ध्येय है। अत: समस्त जगत से दृष्टि हटाकर एकमात्र निज-शुद्धात्मा पर केन्द्रित करने में ही सार है, शेष सब असार है, संसार है।।५०||
इसके बाद टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव तथा आचार्य अमृतचन्द्रदेव ने भी कहा है ऐसा लिखकर एक छन्द प्रस्तुत करते है। छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(हरिगीत ) मैं तो सदा ही शुद्ध परमानन्द चिन्मयज्योति हूँ। सेवन करें सिद्धान्त यह सब ही मुमुक्षु बन्धुजन || जो विविध परभाव मुझ में दिखें वे मुझ से पृथक् ।
वे मैं नहीं हैं क्योंकि वे मेरे लिए परद्रव्य हैं||२५|| १. समयसार : आत्मख्याति, छन्द १८५