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तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभि: ह्र
( मालिनी ) व्यवहरणनयः स्याद्यद्यपि प्राक्पदव्यामिह निहितपदानां हंत हस्तावलंब: । तदपि परममर्थं चिच्चमत्कारमात्रं परविरहितमंतः पश्यतां नैष किंचित् ।। २४ ।।
इस गाथा और उसकी टीका में यही बात स्पष्ट की गई है कि यद्यपि द्रव्य-पर्यायात्मक वस्तु का स्वरूप समझने के लिए व्यवहारनय की उपयोगिता है; क्योंकि व्यवहारनय का विषय भी लोक में विद्यमान है; तथापि व्यवहारनय के विषयभूत पक्ष के आश्रय से धर्म प्रगट नहीं होता, सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र की उत्पत्ति नहीं होती । अतः उसके विषय को भलीभांति जानकर, उसमें से अपनापन तोड़कर, परमशुद्ध-निश्चयनय के विषयभूत अपने आत्मा में ही अपनापन स्थापित करना चाहिए ||४९||
नियमसार
इसके उपरान्त टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव तथा आचार्य अमृतचन्द्रदेव ने भी कहा है ह्न ऐसा कहकर एक छन्द प्रस्तुत करते हैं; जो इसप्रकार है
(रोला )
ज्यों दुर्बल को लाठी है हस्तावलम्ब त्यों । उपयोगी व्यवहार सभी को अपरमपद में ॥ पर उपयोगी नहीं रंच भी उन लोगों को ।
जो रमते हैं परम-अर्थ चिन्मय चिद्घन में ||२४||
यद्यपि खेद है कि जिन्होंने पहली पदवी में पैर रखा है, उनके लिए व्यवहारनय हस्तावलम्ब है, हाथ का सहारा है; तथापि जो परद्रव्यों और उनके भावों से रहित, चैतन्यचमत्कारमात्र परम- अर्थ को अन्तर में अवलोकन करते हैं, उसकी श्रद्धा करते हैं, उसमें लीन होकर चारित्रभाव को प्राप्त होते हैं; उन्हें यह व्यवहारनय कुछ भी प्रयोजनवान नहीं है ।
जिसप्रकार बीमारी से उठे अशक्त व्यक्ति को कमजोरी के कारण चलने-फिरने में लाठी का सहारा लेना पड़ता है; पर उसकी भावना तो यही रहती है कि कब इस लाठी का आश्रय छूटे | वह यह नहीं चाहता कि मुझे सदा ही यह सहारा लेना पड़े।
उसीप्रकार निचली दशा में व्यवहार का सहारा लेते हुए भी कोई आत्मार्थी यह नहीं चाहता कि उसे सदा ही यह सहारा लेना पड़े। वह तो यही चाहता है कि कब इसका आश्रय छूटे और मैं अपने में समा जाऊँ । बस यही भाव उक्त छन्द में व्यक्त किया गया है ||२४||
१. समयसार : आत्मख्याति, छन्द ५