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शुद्धभाव अधिकार
असरीरा अविणासा अणिंदिया णिम्मला विसुद्धप्पा। जह लोयग्गे सिद्धा तह जीवा संसिदी णेया॥४८।।
अशरीरा अविनाशा अतीन्द्रिया निर्मला विशुद्धात्मानः।
यथा लोकाग्रे सिद्धास्तथा जीवा: संसृतौ ज्ञेयाः ।।४८।। टीकाकार मुनिराज इस गाथा की टीका के अन्त में एक छन्द लिख रहे हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है तू
(दोहा) पहले से ही शुद्धता जिनमें पाई जाय। उन सुधिजन कुधिजनों में कुछ भी अंतर नाय।। किस नय से अन्तर करूँ उनमें समझ न आय|
मैं पूँछू इस जगत से देवे कोई बताय ||७१|| जिन सुबुद्धियों को तथा कुबुद्धियों को पहले से ही शुद्धता विद्यमान है तो मैं उन सुबुद्धियों और कुबुद्धियों में अन्तर किस नय से जानें?
उक्त छन्द में भाषा तो ऐसी है कि जैसे टीकाकार मुनिराज श्री को उस नय का पता नहीं है कि जिस नय से सुबुद्धि और कुबुद्धियों में महान अन्तर है; पर बात ऐसी नहीं है।
ऐसा कहकर वे यह कहना चाहते हैं कि जब परमशुद्धनिश्चयनय की स्वभावदृष्टि ही परमार्थ है अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूपमोक्षमार्ग और मोक्ष की उत्कृष्टतम साधक है तो मैं व्यवहारनयाश्रित पर्यायदृष्टि से क्यों देवू, पर्यायदृष्टि को मुख्य क्यों करूँ?
तात्पर्य यह है कि यदि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की प्राप्ति करनी है तो सभी आत्मार्थी भाई-बहिनों को परमशुद्धनिश्चयनय की इस स्वभावग्राही परमार्थदृष्टि को ही मुख्य करना चाहिए।|७||
विगत गाथा में यह स्पष्ट करने के उपरान्त कि द्रव्यदृष्टि से संसारी और सिद्ध जीवों में कोई अन्तर नहीं है; अब इस गाथा में यह बताते हैं कि कार्यसमयसार और कारणसमयसार में कोई अन्तर नहीं है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(हरिगीत ) शुद्ध अविनाशी अतीन्द्रिय अदेह निर्मल सिद्ध ज्यों।
लोकान में जैसे विराजे जीव हैं भवलीन त्यों||४८|| जिसप्रकार लोकाग्र में स्थित सिद्ध भगवान अशरीरी, अविनाशी, अतीन्द्रिय, निर्मल और विशुद्धात्मा हैं; उसीप्रकार सभी संसारी जीवों को जानो।