________________
११८
( वसन्ततिलका) आद्यन्तमुक्तमनघं परमात्मतत्त्वं निर्द्वन्द्वमक्षयविशालवरप्रबोधम् । तद्भावनापरिणतो भुवि भव्यलोक: सिद्धिं प्रयाति भवसंभवदुःखदूराम् ।।६८ ।।
छठवें छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है
नियमसार
(दोहा)
सूत्रकार मुनिराज ने आतम दियो बताय । उससे भवि मुक्ति लहें मैं पूजूँ मन लाय ||६७॥
इसप्रकार निज आत्मा को जाननेवाले सूत्रकार आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने जिस निजात्मतत्त्व का निरूपण किया है और जिसे जानकर भव्यजीव मुक्ति की प्राप्ति करते हैं; उस निजात्मतत्त्व को उत्तमसुख की प्राप्ति हेतु मैं भाता हूँ ।
इस छन्द में मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव उत्तम पुरुष में ही बात करते हुए कह रहे हैं कि आत्मा के स्वरूप को भलीभांति जाननेवाले आत्मानुभवी पूर्वाचार्य श्रीकुन्दकुन्ददेव ने अपने आत्मा का जो स्वरूप बताया है; आत्मा के उस स्वरूप को जानकर भव्यजीव मुक्ि की प्राप्ति करते हैं; इसलिए मैं भी उत्तम सुख की प्राप्ति के लिए उक्त निजात्मतत्त्व की भावना भाता हूँ ।। ६७ ।।
सातवें छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार हैह्र
रोला )
ज्ञानरूप अक्षय विशाल निर्द्वन्द्व अनूपम आदि-अन्त अर दोष रहित जो आत्मतत्त्व है।
उसको पाकर भव्य भवजनित भ्रम से छूटें
उसमें रमकर भव्य मुक्ति रमणी को पाते ||६८|| आदि - अन्त और दोषरहित जो अक्षय, विशाल, उत्तम, ज्ञानस्वरूप, निर्द्वन्द्व परमात्मतत्त्व है; जगत में जो भव्यजन उस परमात्मतत्त्व की भावनारूप परिणमित होते हैं; वे भव्यजन भवजनित दु:ख से दूर मुक्तिरूप सिद्धि को प्राप्त करते हैं ।
उक्त छन्द में मात्र इतना ही कहा गया है कि परमात्मतत्त्व की भावना से भव्यजन भवजनित दुःखों से मुक्ति प्राप्त करते हैं। इसलिए सभी आत्मार्थी भाई-बहिनों को परमात्मतत्त्व की भावना को भाना चाहिए ।। ६८ ।।