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शुद्धभाव अधिकार
फलरूपा भवति । अत: सहजशुद्धज्ञानचेतनात्मानं निजकारणपरमात्मानं संसारावस्थायां मुक्तावस्थायां वा सर्वदैकरूपत्वादुपादेयमिति हे शिष्य त्वं जानीहि इति ।
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इसलिए सहजशुद्धज्ञानचेतनास्वरूप निज कारणपरमात्मा संसारावस्था में या मुक्तावस्था में सर्वदा एक होने से उपादेय है ह्न ऐसा हे शिष्य तू जान !”
उक्त दो गाथाओं में समागत दूसरी गाथा, वही बहुचर्चित गाथा है, जो आचार्य कुन्दकुन्द के पंचपरमागमों में प्राप्त होती है । समयसार में ४९वीं, प्रवचनसार में १७२वीं, पंचास्तिकाय में १२७वीं, अष्टपाहुड़ के भावपाहुड़ में ६४वीं और इस नियमसार में ४६वीं गाथा के रूप में है ।
आचार्य 'कुन्दकुन्द के ग्रन्थों के अतिरिक्त अन्य ग्रन्थों में भी यह गाथा पाई जाती है। धवल के तीसरे भाग में भी यह गाथा है । पद्मनन्दिपंचविंशतिका एवं द्रव्यसंग्रहादि में यह उद्घृत की गई है। इसप्रकार आत्मा का स्वरूप प्रतिपादन करनेवाली यह गाथा जिनागम की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण गाथा है ।
आचार्य कुन्दकुन्द कृत समयसार की आत्मख्याति टीका में इस गाथा का अर्थ करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र अरस, अरूप, अगंध, अव्यक्त और अशब्द पदों के छह-छह अर्थ करते हैं और अनिर्दिष्ट-संस्थान पद के चार अर्थ करते हैं; किन्तु उन्होंने अलिंगग्रहण पद का अर्थ सामान्य सा करके ही छोड़ दिया है। प्रवचनसार की तत्त्वप्रदीपिका टीका में अलिंगग्रहण पद पर जोर दिया है, उसके २० अर्थ किये हैं ।
समयसार, प्रवचनसार और पंचास्तिकाय ह्न इन तीनों ग्रंथों पर आचार्य अमृतचन्द्र ने संस्कृत भाषा में जो टीकायें लिखीं, उनमें से किसी भी टीका में इस गाथा का अर्थ करते समय चेतनागुण के संबंध में विशेष विस्तार नहीं किया है; किन्तु यहाँ इस गाथा का अर्थ करते समय मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव का ध्यान इसी पद पर केन्द्रित हैं, शेष पदों पर विशेष प्रकाश नहीं डाला। इसके पूर्व की गाथा के अर्थ में ही इस गाथा के अरसादि विशेषणों को समाहित कर लिया है; क्योंकि उक्त गाथा में भी तो यही कहा है कि आत्मा में रूप, रस, गंध और स्पर्श नहीं है और इसमें भी यही कहा जा रहा है कि आत्मा अरस, अरूप, अगंध और अस्पर्श है । इसीप्रकार अन्य विशेषणों के बारे में भी विचार कर लेना चाहिए। चेतनागुण विशेषण के संदर्भ में यहाँ चेतना के भेद कर्मचेतना, कर्मफलचेतना और ज्ञानचेतना की चर्चा विस्तार से की है ।
कहा गया है कि स्थावर जीवों के कर्मफलचेतना की प्रधानता है; क्योंकि सहज पुण्यपाप के योग से उन्हें जो भी संयोग प्राप्त होते हैं, संयोगी भाव अर्थात् मोह-राग-द्वेषभाव होते हैं; वे तो उन्हें ही भोगते रहते हैं, उनका ही वेदन करते रहते हैं।