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तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभि: ह्र
( मंदाक्रान्ता ) इत्युच्छेदात्परपरिणतेः कर्तृकर्मादिभेदभ्रान्तिध्वंसादपि च सुचिराल्लब्धशुद्धात्मतत्त्वः । सञ्चिन्मात्रे महसि विशदे मूच्छितश्चेतनोऽयं स्थास्यत्युद्यत्सहजमहिमा सर्वदा मुक्त एव ।। २२ ।। १
उक्त गाथा में परमशुद्धनिश्चयनय के विषयभूत परमपारिणामिकभाव रूप भगवान आत्मा निर्ग्रन्थादि जो भी विशेषण दिये गये हैं; वे सभी द्रव्यस्वभाव के हैं, पर्याय के नहीं । तात्पर्य यह है कि मिथ्यात्व और क्रोधादि अंतरंग परिग्रह वर्तमान पर्याय में होने पर भी द्रव्यस्वभाव में नहीं है। उक्त द्रव्यस्वभाव में अपनापन स्थापित होने से सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्ररूप निर्मल पर्याय प्रगट होती है और मिथ्यादर्शन - ज्ञान - चारित्ररूप विकारी पर्यायों का पर्याय में भी अभाव हो जाता है ॥४४॥
इसके बाद ‘तथा श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरि ने भी कहा है' ह्र ऐसा लिखकर एक छन्द प्रस्तुत करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
( मनहरण कवित्त )
इस भाँति परपरिणति का उच्छेद कर ।
करता-करम आदि भेदों को मिटा दिया || इस भाँति आतमा का तत्त्व उपलब्ध कर ।
कल्पनाजन्य भेदभाव को मिटा दिया || ऐसा यह आतमा चिन्मात्र निरमल |
नियमसार
सुखमय शान्तिमय तेज अपना लिया || आपनी ही महिमामय परकाशमान |
रहेगा अनंतकाल जैसा सुख पा लिया ||२२||
परपरिणति के उच्छेद और कर्ता, कर्म आदि भेदों की भ्रान्ति के नाश से जिसने शुद्धात्मतत्त्व उपलब्ध किया है; ऐसा वह आत्मा चैतन्यमात्ररूप निर्मल तेज में लीन होता हुआ अपनी ही सहज महिमा में प्रकाशमानरूप से सदा मुक्त ही रहेगा ।
इसप्रकार इस छन्द में यह बताया गया है कि जिस आत्मा ने परपरिणति के उच्छेद और कर्ता-कर्म संबंधी भ्रान्ति के नाश से शुद्धनय के विषयभूत शुद्धात्मा को उपलब्ध किया है; वह आत्मा स्वयं में ही समा जायेगा और दुःखों से सदा ही मुक्त रहेगा, प्रकाशमान रहेगा ।। २२ ।। १. प्रवचनसार : तत्त्वप्रदीपिका, छन्द ८