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शुद्धभाव अधिकार
तथा हि ह्न
(मालिनी) दुरघवनकुठारः प्राप्तदुःकर्मपारः
परपरिणतिदूरः प्रास्तरागाब्धिपूरः। हतविविधविकारः सत्यशर्माब्धिनीरः
सपदि समयसारः पातु मामस्तमारः ।।६२।। जयति परमतत्त्वं तत्त्वनिष्णातपद्म
__ प्रभमुनिहृदयाब्जे संस्थितं निर्विकारम् । हतविविधविकल्पं कल्पनामात्ररम्याद्
भवभवसुखदुःखान्मुक्तमुक्तं बुधैर्यत् ।।६३।। व्यंजनों तथा विसर्ग आदि सभी अक्षरों और एक, दो, तीन आदि संख्यारूप अंकों से रहित है। इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि अंधकार और अहित से रहित यह अनुभूतिगम्य शाश्वत तत्त्व अक्षर और अंक विद्या से पकड़ में आने वाला नहीं है। तात्पर्य यह है कि भाषा की पकड़ से बाहर है। स्पर्श, रस, रूप, गंध और पृथ्वी आदि पंचभूतों से रहित यह आत्मतत्त्व इन्द्रियों के माध्यम से भी नहीं जाना जा सकता। इन्द्रियज्ञान और भाषा की पकड़ में न आनेवाला यह भगवान आत्मा तो एकमात्र अनुभूतिगम्य परमपदार्थ है।।२१||
इसके उपरान्त मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव 'तथाहि' लिखकर सात छन्द स्वयं प्रस्तुत करते हैं। उनमें से पहले छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(रोला) परपरिणति से दूर और दुष्कर्म पार है।
अस्तमार दुर्वार पापवन का कुठार है।। रक्षक होममरागोदधि का पूर पार जो।
सुखसागरजल निर्विकार है समयसार जो ||६२|| जो समयसार (शद्धात्मा) दृष्ट पापोंरूप वन का छेदन-भेदन करने के लिए कठार (कुल्हाड़ा) के समान है, दुष्कर्मों के पार को प्राप्त है, पर परिणति से दूर है, जिसने रागरूपी सागर के पूर (बाढ़) को अस्त किया है, जिसने विविध विकारों को नष्ट कर दिया है, जो सच्चे सुख-सागर का जल है और जिसने कामभाव को अस्त किया है। वह समयसार (शुद्धात्मा) मेरी रक्षा शीघ्र करे।
इस छन्द में समयसाररूप शुद्धात्मा की स्तुति करते हुए उससे रक्षा करने की प्रार्थना