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जीव अधिकार द्वेषादिभावकर्मणां कर्ता भोक्ता च, अनुपचरितासद्भूतव्यवहारेण नोकर्मणां कर्ता, उपचरितासद्भूतव्यवहारेण घटपटशकटादीनां कर्ता इत्यशुद्धजीवस्वरूपमुक्तम् । असद्भूत व्यवहारनय से देहादिरूप नोकर्मों का कर्ता और उपचरित-असद्भूत व्यवहारनय से घट-पट-शकटादि (घड़ा, वस्त्र और गाड़ी आदि) का कर्ता है। इसप्रकार यह अशुद्धजीव का स्वरूप कहा।"
असद्भूत और सद्भूत के भेद से व्यवहारनय दो प्रकार का है।
असद्भूतव्यवहारनय भी उपचरित-असद्भूत और अनुपचरित-असद्भूत के भेद से दो प्रकार का है। इसीप्रकार सद्भूतव्यवहारनय भी उपचरित-सद्भूतव्यवहानय और अनुपचरित-सद्भूत-व्यवहारनय के भेद से दो प्रकार का है।
इसप्रकार व्यवहारनय चार प्रकार का है। व्यवहारनय के उक्त चार प्रकार इसप्रकार हैं ह्न १. उपचरित असद्भूतव्यवहारनय २. अनुपचरित असद्भूतव्यवहारनय ३. उपचरित सद्भूतव्यवहारनय ४. अनुपचरित सद्भूतव्यवहारनय निश्चयनय भी शद्धनिश्चय और अशद्धनिश्चय के भेद से दो प्रकार का होता है।
अशुद्धनिश्चयनय एक प्रकार का ही है; पर शुद्धनिश्चयनय तीन प्रकार का होता है। वे तीन प्रकार इसप्रकार हैं ह्न १. एकदेशशुद्धनिश्चयनय, २. साक्षात्शुद्धनिश्चयनय, ३. परमशुद्धनिश्चयनय।
इस गाथा की टीका में द्रव्यकर्मरूप कार्मणशरीर और नोकर्मरूप औदारिकादि शरीर का कर्ता-भोक्ता आत्मा को अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से कहा है; क्योंकि कार्माण शरीर और औदारिकादि शरीर एकक्षेत्रावगाही होने से निकटवर्ती हैं, इसलिए अनुपचरित है; अपने से भिन्न हैं, इसलिए असद्भूत हैं और इन्हें अपना कहा गया है, इसलिए व्यवहार हैं; इसप्रकार यह आत्मा इनका कर्ता-भोक्ता अनुपचरित असद्भूतव्यवहारनय से है।
इसीप्रकार घटपटादि दूरवर्ती परद्रव्यों का कर्ता-भोक्ता उपचरित-असद्भूतव्यवहारनय से कहा; क्योंकि घट-पटादि क्षेत्र से दूरवर्ती पदार्थ हैं, इसलिए उपचरित हैं; वे अपने से भिन्न हैं, इसलिए असद्भूत हैं और उनका कर्ता-भोक्ता कहा जाता है; अत: व्यवहार हैं ह इसप्रकार घट-पटादि का कर्ता-भोक्ता आत्मा उपचरित असद्भूतव्यवहारनय से है।
मोह-राग-द्वेषादि भाव अपने भाव ही हैं, पर अशुद्ध हैं; अत: उनका कर्ता-भोक्ता अशुद्धनिश्चयनय से कहा है। __ इसप्रकार इस गाथा और इसकी टीका में नयविभाग से जीव के कर्तृत्व और भोक्तृत्व को समझाया है।।१८।।