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जीव अधिकार
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मशुद्धत्वं च संभवति । पूर्वकाले ते भगवन्त: संसारिण इति व्यवहारात् । किं बहुना, सर्वे जीवा नयद्वयबलेन शुद्धाशुद्धा इत्यर्थः। तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः ह्र
(मालिनी) उभयनयविरोधध्वंसिनि स्यात्पदांके
जिनवचसि रमंते ये स्वयं वांतमोहाः। सपदि समयसारं ते परं ज्योतिरुच्चै
रनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षन्त एव ।।६।। यहाँ भूतनैगमनय की अपेक्षा से सिद्ध भगवान के भी व्यंजनपर्याय और अशुद्धता संभव है; क्योंकि भूतकाल में सिद्ध भी संसारी ही थे ह्न ऐसा व्यवहार है।
अधिक कहने से क्या, सभी जीव दो नयों के बल से शुद्ध व अशुद्ध हैं ह्न ऐसा अर्थ है।" यद्यपि तात्पर्यवृत्ति टीका और स्वामीजी के स्पष्टीकरण से गाथा का भाव पूरीतरह स्पष्ट हो जाता है। तथापि टीका में जिस नैगमनय की चर्चा की गई है, उसका स्वरूप इसप्रकार हैं ह्न
जो भूतकाल की पर्यायों को वर्तमानवत् संकल्पित करेया कहे, भविष्यकाल की पर्यायों को वर्तमानवत् संकल्पित करे या कहे और कुछ निष्पन्न व कुछ अनिष्पन्न वर्तमान पर्यायों को पूर्णत: निष्पन्न के समान संकलित करेया कहे; उस ज्ञान को या वचन को नैगमनय कहते हैं।
यही कारण है कि यह नय तीनप्रकार का होता है ह भूतनैगमनय, भावीनैगमनय और वर्तमाननैगमनय।
इसप्रकार हम देखते हैं कि इस नैगमनय का पैटा बहुत बड़ा है। इस नय का विषय पदार्थ और शब्द तो हैं ही; ज्ञानात्मक संकल्प भी है। इस प्रकार यह नैगमनय ज्ञाननय भी है, अर्थनय भी है और शब्दनय भी है||१९|| __ इसके उपरान्त टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः ह्न तथा आचार्य अमृतचन्द्र ने कहा है ह्न' कहकर एक छन्द उद्धृत करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(रोला) उभयनयों में जो विरोध है उसके नाशक।
स्याद्वादमय जिनवचनों में जो रमते हैं। मोह वमन कर अनय-अखण्डित परमज्योतिमय।
स्वयं शीघ्र ही समयसार में वे रमते हैं।।६।। १. समयसार, श्लोक ४