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अजीव अधिकार
इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेवविरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ अजीवाधिकारो द्वितीय: श्रुतस्कन्धः ।
छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है
( हरिगीत )
जिस भव्य के मुख कमल में ये ललितपद वसते सदा । उस तीक्ष्णबुद्धि पुरुष को शुद्धातमा की प्राप्ति हो ।
चित्त में उस पुरुष के शुद्धातमा नित ही वसे । इस बात में आश्चर्य क्या यह तो सहज परिणमन है ॥५३॥
जिस भव्योत्तम के मुखकमल में सदा इसप्रकार के ललितपदों की पंक्ति शोभायमान होती है; उस तीक्ष्णबुद्धिवाले पुरुष के हृदयकमल में शीघ्र ही शुद्धात्मारूप समयसार शोभायमान होता है, इसमें क्या आश्चर्य है ?
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अजीवाधिकार के इस अन्तिम छन्द में मात्र इतना ही कहा गया है कि जो भव्यजीव उक्त कथनों के मर्म को जानता है; वह तीक्ष्णबुद्धिवाला भव्योत्तम पुरुष समयसाररूप निज भगवान आत्मा को प्राप्त करता है ।। ५३ ।
अजीवाधिकार की समाप्ति के अवसर पर टीकाकार जो पंक्ति लिखते हैं; उसका भाव इसप्रकार है ह्र
“इसप्रकार सुकविजनरूपी कमलों के लिए जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियों के विस्तार रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था, ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसार ( आचार्य कुन्दकुन्द प्रणीत) की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में अजीवाधिकार नामक द्वितीय श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ ।”
यहाँ नियमसार एवं उसकी तात्पर्यवृत्ति टीका के साथ-साथ डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल कृत आत्मप्रबोधिनी हिन्दी टीका में अजीवाधिकार नामक द्वितीय श्रुतस्कन्ध भी समाप्त होता है ।
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भेद-विज्ञानी का मार्ग स्व और पर को जानना मात्र नहीं है, स्व से भिन्न पर को जानना मात्र भी नहीं है; बल्कि पर से भिन्न स्व को जानना, मानना और अनुभवना है। यहाँ 'स्व' मुख्य है, 'पर' गौण । 'पर' गौण है, पूर्णत: गौण है; क्योंकि उसकी मुख्यता में 'स्व' गौण हो जाता है; जो कि ज्ञानी को कदापि इष्ट नहीं है । ह्न तीर्थंकर महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ, पृष्ठ- १३२