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शुद्धभाव अधिकार संसारसुखस्याभावान्न हर्षस्थानानि । न चाशुभपरिणतेरभावादशुभकर्म, अशुभकर्माभावान्न दुःखं, दुःखाभावान्न चाहर्षस्थानानि चेति।
(शार्दूलविक्रीडित) प्रीत्यप्रीतिविमुक्तशाश्वतपदे नि:शेषतोऽन्तर्मुखनिर्भेदोदितशर्मनिर्मितवियविंबाकृतावात्मनि । चैतन्यामृतपूरपूर्णवपुषे प्रेक्षावतां गोचरे
बुद्धिं किं न करोषि वांछसि सुखं त्वं संसृतेर्दुःकृतेः ।।५।। सांसारिक सुख का अभाव होने से हर्षस्थान नहीं है तथा अशुभपरिणति का अभाव होने से अशुभकर्म नहीं है, अशुभकर्म का अभाव होने से दुख नहीं है और दुख का अभाव होने से अहर्ष के स्थान नहीं हैं।"
उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि दष्टि के विषयभूत भगवान आत्मा में न तो विभाव स्वभाव के स्थान हैं, न मानापमान के स्थान हैं, न हर्ष और अहर्ष भाव के स्थान हैं। वह तो इन सबसे भिन्न त्रिकाली ध्रुवतत्त्व है, ज्ञानानन्दस्वभावी परमपदार्थ है; उसके आश्रय से ही मुक्तिमार्गरूप सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की प्राप्ति होती है।।३९।। टीका के अंत में पद्मप्रभमलधारिदेव एक छंद लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार हैह्न
(रोला) चिदानन्द से भरा हुआ नभ सम अकृत जो।
राग-द्वेष से रहित एक अविनाशी पद है। चैतन्यामृत पूर चतुर पुरुषों के गोचर।
आतम क्यों न रुचे करे भोगों की वांछा ।।५५|| हे आत्मन् ! तू ऐसे आत्मा की रुचि क्यों नहीं करता; जो प्रीति और अप्रीति से रहित शाश्वत पदरूप है, जो पूर्णत: अन्तर्मुख और प्रगट प्रकाशमान सुख से बना हुआ है; जो आकाश के समान अकृत (जिसे किसी ने नहीं बनायाह्न ऐसा) तत्त्व है, चैतन्यामृत के पूर से भरा हुआ है और विचारवान चतुर पुरुषो द्वारा अनुभूत है ? ऐसे भगवान आत्मा के होते हुए भी हे आत्मन् ! तू पापरूप सांसारिक सुखों की वांछा क्यों करता है ? ___अनादिकाल से यह आत्मा परपदार्थों में अपनापन स्थापित करके, उन्हीं में रचा-पचा रहा है। अब सैनी पंचेन्द्रिय होकर, मनुष्य भव पाकर, जैनकुल में जन्म लेकर, जिनागम का अभ्यास करके भी, सद्गुरुओं के द्वारा बार-बार समझाये जाने पर भी; उन्हीं पापरूप सांसारिक सुखों की वांछा करता है, उन्हें प्राप्त करने के लिए सब कुछ करने को तैयार रहता है।