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( अनुष्टुभ् )
चिच्छक्तिव्याप्तसर्वस्वसारो जीव इयानयम् ।
अतोऽतिरिक्ताः सर्वेऽपि भावा: पौद्गलिका अमी ।। २० ।।
इसके बाद टीकाकार 'तथा आचार्य अमृतचन्द्र ने भी कहा है' ह्र ऐसा लिखकर दो छन्द उद्धृत करते हैं, उनमें पहले छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार हैह्र ( हरिगीत )
चैतन्यशक्ति से रहित परभाव सब परिहार कर । चैतन्यशक्ति से सहित निजभाव नित अवगाह कर ॥ है श्रेष्ठतम जो विश्व में सुन्दर सहज शुद्धातमा ।
अब उसी का अनुभव करो तुम स्वयं हे भव्यातमा ||१९||
नियमसार
हे भव्यात्मन् ! चैतन्यशक्ति से रहित अन्य समस्त भावों को छोड़कर और अपने चैतन्यशक्तिमात्र भाव को प्रगटरूप से अवगाहन करके लोक के समस्त सुन्दरतम पदार्थों के ऊपर तैरनेवाले अर्थात् पर से पृथक् एवं सर्वश्रेष्ठ इस एकमात्र अविनाशी आत्मा को अपने आत्मा में ही देखो, अपने-आप में ही साक्षात्कार करो, साक्षात् अनुभव करो ।
समयसार की आत्मख्याति टीका में समागत उक्त छन्द में यही कहा गया है कि वर्णादि से लेकर गुणस्थान पर्यन्त जितने भी भाव हैं; वे सभी चित्शक्तिमात्र आत्मा से अत्यन्त भिन्न हैं; अत: उन सभी भावों से अपने उपयोग को समेटकर अनन्त गुणों के अखण्डपिण्ड चित्शक्तिमात्र अविनाशी एक उक्त आत्मा में ही लगा दो ।। १९ ।।
दूसरे छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है
( दोहा )
चित् शक्ति सर्वस्व जिन, केवल वे हैं जीव ।
उन्हें छोड़कर और सब, पुद्गलमयी अजीव ||२०||
जिसका सर्वस्व, जिसका सार चैतन्यशक्ति से व्याप्त है; वह जीव मात्र इतना ही है; क्योंकि इस चैतन्यशक्ति से शून्य जो भी अन्यभाव हैं; वे सभी पौद्गलिक हैं, पुद्गलजन्य हैं, पुद्गल ही हैं।
इस छन्द में मात्र इतना ही कहा गया है कि भगवान आत्मा तो चैतन्य शक्तिमात्र है । इससे भिन्न जितने भी भाव हैं; वे सभी भाव पौद्गलिक हैं, अजीव हैं, अचेतन हैं। तात्पर्य यह है कि ज्ञानानन्दस्वभावी निज भगवान आत्मा को छोड़कर अन्य सभी भाव अपनापन स्थापित करने १. समयसार : आत्मख्याति, छन्द ३६