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शुद्धभाव अधिकार
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प्रदानशक्तियुक्तो ानुभागबन्ध:, अस्य स्थानानां वा न चावकाशः । न च द्रव्यभावकर्मोदयस्थानानामप्यवकाशोऽस्ति इति । तथा चोक्तं श्री अमृतचन्द्रसूरिभिः ह्न
(मालिनी) न हि विदधति बद्धस्पृष्टभावादयोऽमी
स्फुटमुपरि तरन्तोऽप्येत्य यत्र प्रतिष्ठाम् । अनुभवतु तमेव द्योतमानं समन्तात्
जगदपगतमोहीभूय सम्यक्स्व भावम् ।।१८।।' शुभाशुभ कर्मों की निर्जरा के समय सुख-दुख रूप फल देने की सामर्थ्य ही अनुभाग बंध है; इस अनुभागबंध के स्थान भी जीव के नहीं हैं। जिसप्रकार बंध के उक्त स्थान जीव के नहीं है; उसीप्रकार द्रव्यकर्म और भावकों के उदय के स्थान भी जीव के नहीं हैं।"
इस गाथा में मात्र इतना ही कहा गया है कि प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग ह इन चारों बंधों के स्थान व कर्मों के उदय के स्थान शुद्ध जीव में नहीं हैं। तात्पर्य यह है कि कर्मों के बंध व उदय में होनेवाली आत्मा की अवस्थायें भी वह आत्मा नहीं है कि जिस आत्मा के आश्रय से मुक्तिमार्ग प्रगट होता है, मुक्ति की प्राप्ति होती है।।४०||
टीकाकार मुनिराज टीका के उपरान्त तथा आचार्य अमृतचन्द्र के द्वारा भी कहा गया हैं ह्न ऐसा लिखकर एक छन्द उद्धृत करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(हरिगीत) पावें न जिसमें प्रतिष्ठा बस तैरते हैं बाह्य में। ये बद्धस्पृष्टादि सब जिसके न अन्तरभाव में।। जो है प्रकाशित चतुर्दिक उस एक आत्मस्वभाव का।
हे जगतजन ! तुम नित्य ही निर्मोह हो अनुभव करो||१८|| ये बद्धस्पृष्टादि पाँच भाव जिस आत्मस्वभाव में प्रतिष्ठा को प्राप्त नहीं करते, मात्र ऊपरऊपर ही तैरते हैं और जो आत्मस्वभाव चारों ओर से प्रकाशमान है अर्थात् सर्व-अवस्थाओं में प्रकाशमान है; आत्मा के उस सम्यक्स्वभाव का हे जगत के प्राणियो! तुम मोहरहित होकर अनुभव करो।
उक्त छन्द में शुद्धनय के विषयभूत बद्धस्पृष्टादि पाँच भावों से रहित, अपनी समस्त अवस्थाओं में प्रकाशमान सम्यक् आत्मस्वभाव के अनुभव करने की प्रेरणा दी गई है और यह भी कहा गया है कि शुद्धनय के विषयभूत इस भगवान आत्मा के अतिरिक्त जो बद्धस्पृष्टादि पाँच भाव हैं, उनसे एकत्व का मोह तोड़ो, उन्हें अपना मानना छोड़ो।।१८।। १. समयसार : आत्मख्याति, छन्द ११