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नियमसार
नखलुस्वभावस्थानानि न मानापमानभावस्थानानि वा।
न हर्षभावस्थानानि न जीवस्याहर्षस्थानानि वा ।।३९।। निर्विकल्पतत्त्वस्वरूपाख्यानमेतत् । त्रिकालनिरुपाधिस्वरूपस्य शुद्धजीवास्तिकायस्य न खलु विभावस्वभावस्थानानि । प्रशस्ताप्रशस्तसमस्तमोहरागद्वेषाभावान्न च मानापमानहेतुभूतकर्मोदयस्थानानि । न खलु शुभपरिणतेरभावाच्छुभकर्म, शुभकर्माभावान्न संसारसुखं,
(रोला) सकलविलय से दूर पूर सुखसागर का जो।
क्लेशोदधि से पार शमित दर्वारमार जो।। शुद्धज्ञान अवतार दुरिततरु का कुठार जो ।
समयसार जयवंत तत्त्व का एक सार जो||५४|| जो सर्वतत्त्वों में सारभूत तत्त्व है, नाशवान भावों से दूर है, दुर्वार कामभाव का नाशक है, पापरूपी वृक्षों के छेदनेवाला कुठार है, शुद्धज्ञान का अवतार है, सुखसागर की बाढ़ है और जो क्लेशरूपी सागर का किनारा है; वह समयसार अर्थात् शुद्धात्मा जयवंत वर्तता है।
उक्त छन्द में समयसाररूप निज भगवान आत्मा को सभी तत्त्वों का सार, सम्पूर्ण क्षणिकभावों से दूर, सभी प्रकार की इच्छाओं से रहित, पापरूपी वृक्षों के लिए कुठार के समान घातक, शुद्धज्ञान का अवतार, सभीप्रकार के कष्टों के सागर से पार और आनन्दरूपी जलनिधि का पूर कहा गया है।।५४||
विगत गाथा में जीवादि बाह्य तत्त्वों को हेय और कर्मोपाधि से निरपेक्ष शुद्धात्मा को उपादेय कहा गया है और अब आगामी गाथाओं में यह स्पष्ट करेंगे कि उक्त आत्मा में क्याक्या नहीं है। निर्विकल्पतत्त्व का स्वरूप बतानेवाली ३९वीं गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार हैह्न
(हरिगीत ) अरे विभाव स्वभाव हर्षाहर्ष मानपमान के।
स्थान आतम में नहीं ये वचन हैं भगवान के||३९|| वस्तुत: जीव में न तो स्वभाव स्थान (विभावस्वभाव के स्थान) हैं, न मानापमान भाव के स्थान हैं और न हर्ष-अहर्ष के स्थान हैं।
इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
"यह निर्विकल्पतत्त्व के स्वरूप का कथन है। त्रिकाल निरुपाधि स्वरूपवाले शुद्धजीवास्तिकाय के विभावरूप स्वभाव के स्थान नहीं हैं; प्रशस्त और अप्रशस्त समस्त मोहराग-द्वेष का अभाव होने से मानापमान के हेतुभूत कर्मोदय के स्थान नहीं हैं; शुभपरिणति का अभाव होने से शुभकर्म नहीं हैं, शुभकर्म का अभाव होने से सांसारिक सुख नहीं है और