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अजीव अधिकार
जीवादु पोग्गलादो णंतगुणा चावि संपदा समया । लोयायासे संति य परमट्ठो सो हवे कालो ||३२||
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जीवात् पुद्गलतोनंतगुणाश्चापि संप्रति समया: । लोकाकाशे संति च परमार्थः स भवेत्कालः ।। ३२ ।।
मुख्यकालस्वरूपाख्यानमेतत् । जीवराशेः पुद्गलराशेः सकाशादनन्तगुणाः । के ते ?
(दोहा)
समय निमिष काष्ठा कला घड़ी आदि के भेद | इनसे उपजे काल यह रंच नहीं सन्देह || पर इससे क्या लाभ है शुद्ध निरंजन एक ।
अनुपम अद्भुत आतमा में ही रहूँ हमेश || ४७ ||
समय, निमिष, काष्ठा, कला, घड़ी, दिन-रात आदि भेदों से यह व्यवहारकाल उत्पन्न होता है; परन्तु शुद्ध एक निज निरूपम आत्मतत्त्व को छोड़कर उक्त काल से मुझे क्या लाभ है, कुछ भी लाभ (फल) नहीं ।
इसप्रकार हम देखते हैं कि मूल गाथा में समागत वस्तु का स्वरूप स्पष्ट करते समय भी टीकाकार का मन उक्त विषयवस्तु में रमता नहीं है; उनकी धुन तो एकमात्र आत्मा में ही लगी रहती है, जो लगभग प्रत्येक गाथा की टीका के अन्त में आनेवाले छन्दों में सहज ही प्रगट हो जाती है। मूल ग्रन्थकार आचार्य कुन्दकुन्ददेव तो परमाध्यात्मिक संत थे ही; परन्तु टीकाकार पद्मप्रभमलधारिदेव तो उनसे भी एक कदम आगे बढ़ते दिखाई देते हैं । ४७ ।।
में
विगत गाथा में व्यवहारकाल का स्वरूप स्पष्ट करने के उपरान्त अब इस गाथा निश्चय काल की बात करते हैं । गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ( हरिगीत
जीव एवं पुद्गलों से समय नंत गुणे कहे । कालाणु लोकाकाश थित परमार्थ काल कहे गये ॥ ३२ ॥
जीव और पुद्गल द्रव्यों से समय अनंत गुणे हैं और जो लोकाकाश में कालाणु हैं, वे परमार्थ (निश्चय) काल हैं ।
इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र
"यह मुख्य काल ( निश्चय काल) के स्वरूप का व्याख्यान है । वे जीवराशि और पुद्गलराशि से अनंत गुणे हैं। वे कौन ? समय । तात्पर्य यह है कि वे समय जीवराशि
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