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नियमसार समयाः। कालणव: लोकाकाशप्रदेशेषु पृथक् पृथक् तिष्ठन्ति, स काल: परमार्थः इति।" तथा चोक्तं प्रवचनसारेह्न
__ समओ दु अप्पदेसो पदेसमेत्तस्स दव्वजादस्स ।
वदिवददो सो वट्टदि पदेसमागासदव्वस्स ।।१५।। अस्यापि समयशब्देन मुख्यकालाणुस्वरूपमुक्तम्। अन्यच्च ह्न
लोयायासपदेसे एक्केक्के जे ट्ठिया हु एक्केक्का।
रयणाणं रासी इव ते कालाणु असंखदव्वाणि ।।१६।। उक्तं च मार्गप्रकाशे ह्न
(अनुष्टुभ् ) कालाभावे न भावानां परिणामस्तदंतरात् ।
न द्रव्यं नापि पर्याय: सर्वाभाव: प्रसज्यते ।।१७।। और पुद्गल राशि से अनंतगुणे हैं। कालाणु लोकाकाश के प्रदेशों में अलग-अलग स्थित हैं, वे कालाणु परमार्थ (निश्चय) काल हैं।"
इसप्रकार इस गाथा और उसकी टीका में मात्र यह कहा है कि समय, जीव और पुद्गल द्रव्यों से अनंतगुणे हैं। कालाणु निश्चयकाल हैं और वे कालाणु लोकाकाश के प्रत्येक प्रदेश पर एक-एक स्थित हैं।।३२।।
इसके बाद तथा चोक्तं प्रवचनसारे ह्न तथा प्रवचनसार में भी कहा है ह ऐसा लिखकर एक गाथा उद्धृत करते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
(हरिगीत) पुद्गलाणु मंदगति से चले जितने काल में।
रेएकगगनप्रदेशपरपरदेश विरहित कालवह||१५|| काल तो अप्रदेशी है और प्रदेशमात्र पुद्गल परमाणु आकाशद्रव्य केएकप्रदेश को मंदगति से उल्लघंन कर रहा हो, तब वह काल वर्तता है अर्थात् निमित्तभूततया परिणमित होता है। इस गाथा में 'समय' शब्द से मुख्य कालाणु का स्वरूप कहा है ।।१५।। अन्यत्र (द्रव्यसंग्रह में) भी कहा है ह्न
(हरिगीत) जान लो इस लोक के जो एक-एक प्रदेश पर।
रत्नराशिवत् जड़े वे असंख्य कालाणु दरव||१६|| लोकाकाश के एक-एक प्रदेश में एक-एक कालाणु रत्नों की राशि के समान खचित हैं। वे कालाणु असंख्य द्रव्य हैं ।।१६।। १. प्रवचनसार, गाथा १३८ २.बृहदद्रव्यसंग्रह, गाथा २२ ३. मार्गप्रकाश, श्लोक संख्या अनुपलब्ध है।