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नियमसार
(मालिनी) इति जिनपतिमार्गाद् बुद्धतत्त्वार्थजात:
त्यजतु परमशेषं चेतनाचेतनं च। भजतु परमतत्त्वं चिच्चमत्कारमात्रं परविरहितमन्तर्निर्विकल्पे समाधौ ।।४३।।
(अनुष्टुभ् ) पुद्गलोऽचेतनो जीवश्चेतनश्चेति कल्पना।
साऽपि प्राथमिकानां स्यान्न स्यान्निष्पन्नयोगिनाम् ।।४४।। ___ गाथा और टीका में एक ही बात कही है कि निश्चयनय से तो एकमात्र अकेला पुद्गल परमाणु ही द्रव्य है; पर व्यवहारनय से अनेक परमाणुओं के स्कंध को भी पुद्गल द्रव्य कह दिया जाता है ।।२९।।
इस गाथा की टीका लिखने के बाद मुनिराज तीन छन्द प्रस्तुत करते हैं, उनमें से पहले छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(हरिगीत ) जिनवरकथित सन्मार्ग से तत्त्वार्थ को पहिचान कर| पररूप चेतन-अचेतन को पूर्णत: परित्याग कर। हे भव्यजन ! नित ही भजो तुम निर्विकल्प समाधि में।
निजरूप ज्ञानानन्दमय चित्चमत्कारी आत्म को ||४३|| हे भव्यजीवो! इसप्रकार जिनेन्द्र भगवान द्वारा प्रतिपादित मार्ग से तत्त्वार्थों को जानकर पररूप चेतन-अचेतन समस्त पदार्थों को छोड़ो और अंतरंग निर्विकल्प समाधि में पर से भिन्न चित्चमत्कारमात्र निज परमात्मतत्त्व को भजो, अपने आत्मा की आराधना करो, साधना करो।
उक्त सम्पूर्ण कथन का आशय यह है कि यदि आत्मकल्याण करना है तो सर्वप्रथम जिनागम के आधार से वस्तुस्वरूप का सम्यक निर्णय करना चाहिए। तदुपरान्त अपने से भिन्न चेतन-अचेतन सभी परपदार्थों से भिन्न अपने आत्मा में अपनापन स्थापित करके, परपदार्थों पर से दृष्टि हटाकर स्वयं में ही समा जाना चाहिए।
ध्यान रहे परचेतन पदार्थों में न केवल अपने स्त्री-पुत्रादि ही आते हैं; अपितु पंचपरमेष्ठी भी आते हैं। अत: स्वयं में समा जाने के लिए, समाधिस्थ हो जाने के लिए उन पर से दृष्टि हटानी होगी, उन्हें भी पर रूप ही जानना-मानना होगा; उन पर से भी उपयोग को हटाकर अपने आत्मा में केन्द्रित होना होगा ।।४३।।