________________
अजीव अधिकार
अस्यैव तस्य धर्मास्तिकायस्य गुणपर्यायाः सर्वे भवन्ति । आकाशस्यावकाशदानलक्षणमेव विशेषगुणः । इतरे धर्माधर्मयोर्गुणा: स्वस्यापि सदृशा इत्यर्थः । लोकाकाशधर्माधर्माणां समानप्रमाणत्वे सति न ह्यलोकाकाशस्य ह्रस्वत्वमिति । अधर्मद्रव्य में विशेष बात यह है कि वह जीव और पुद्गलों को गमनपूर्वक स्थिति (ठहरने) में निमित्त होता है। अधर्मद्रव्य में शेष बातें (गुण-पर्यायें) धर्मास्तिकाय के समान ही होती हैं।
इसीप्रकार आकाश का भी अवगाहदान लक्षण विशेष गुण है। आकाश की शेष विशेषताएँ धर्म-अधर्मद्रव्य जैसी ही हैं। ध्यान रखने की बात यह है कि लोकाकाश के धर्म
और अधर्म द्रव्य के समान प्रमाण (आकार) में होने से अलोकाकाश में कोई न्यूनता (कमी) नहीं आती, वह तो अनन्त ही है।"
उक्त सम्पूर्ण कथन का सार तो मात्र यही है कि सभी द्रव्यों को अवकाश (रहने का स्थान) देने में आकाशद्रव्य निमित्त है और गमनक्रिया से युक्त समस्त जीवों और पुद्गलों की स्वभाव और विभावरूप गमन क्रियाओं में धर्मद्रव्य और गमनपूर्वक स्थिति (ठहरना) क्रियाओं में अधर्मद्रव्य निमित्त है।
जीव और पुद्गलों को छोड़कर शेष चार द्रव्यों में गमन क्रिया औरगमनपूर्वकस्थितिक्रिया होती ही नहीं है, अत: उनमें धर्म और अधर्मद्रव्य की निमित्तता की आवश्यकता ही नहीं है।
सभी द्रव्यों में समानरूप से पाई जानेवाली शेष सभी विशेषतायें उक्त तीनों अमूर्तिक और अचेतन द्रव्यों में भी पाई जाती हैं।
टीका में जो जटिलता (समझने में कठिनाई) प्रतीत होती है; वह तो धर्मद्रव्य की परिभाषा स्पष्ट करते समय जो अयोगी जिनों के स्वरूप पर अनेक महिमावाचक विशेषणों के माध्यम से प्रकाश डाला गया है, उनकी महिमा बताई गई है; उसके कारण प्रतीत होती है।
टीकाकार मुनिराज के हृदय में सिद्धों के प्रति जो अगाध भक्ति है, वह जहाँ भी मौका मिलता है, प्रगट हुए बिना नहीं रहती।
टीका में जिन स्वभावगति क्रिया और विभावगति क्रिया की चर्चा आई है; उनका स्वरूप इसप्रकार है ह्न
चौदहवें गुणस्थान के अन्त में जब जीव ऊर्ध्वगमनस्वभाव से लोकान्त में जाता है, तब जो गमनक्रिया होती है, वह जीव की स्वभाव-गतिक्रिया है और संसारावस्था में जब जीव कर्म के निमित्त से छहों दिशाओं में गमन करता है; उस समय होनेवाली जीव की गमनक्रिया विभावगतिक्रिया है।
इसीप्रकार एक-एक पृथक् परमाणु गति करता है, वह पुद्गल की स्वभावगतिक्रिया