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तथाहि ह्र
(मालिनी )
अथ नययुगयुक्तिं लंघयन्तो न संत: परमजिनपदाब्जद्वन्द्वमत्तद्विरेफा: । सपदि समयसारं ते ध्रुवं प्राप्नुवन्ति क्षितिषु परमतोक्तेः किं फलं सज्जनानाम् ।।३६।
जो पुरुष निश्चय और व्यवहार ह्न इन दो नयों के प्रतिपादन में दिखाई देनेवाले विरोध को ध्वंस करनेवाले, स्याद्वाद से चिह्नित जिनवचनों में रमण करते हैं; स्वयं पुरुषार्थ से मिथ्यात्व का वमन करनेवाले वे पुरुष कुनय से खण्डित नहीं होनेवाले, परमज्योतिस्वरूप अत्यन्त प्राचीन अनादिकालीन समयसाररूप भगवान आत्मा को तत्काल ही देखते हैं अर्थात् उसका अनुभव करते हैं।
नियमसार
उक्त छन्द में इस बात पर बल दिया गया है कि स्याद्वाद ही एक ऐसा अमोघ उपाय है कि जिसके द्वारा परस्परविरुद्ध प्रतीत होनेवाला वस्तु-स्वरूप सहज स्पष्ट हो जाता है | ॥६॥
इसके बाद 'तथाहि ह्न अब इसी बात को विशेष स्पष्ट करते हैं' ह्र लिखकर टीकाकार पद्मप्रभमलधारिदेव इसी भाव का पोषक एक काव्य स्वयं लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
रोला ) जिन चरणों के प्रवर भक्त जिन सत्पुरुषों ने ।
नयविभाग का नहीं किया हो कभी उल्लंघन ॥ वे पाते हैं समयसार यह निश्चित जानो ।
आवश्यक क्यों अन्य मतों का आलोड़न हो ॥ ३६ ॥
जिनेन्द्र भगवान के चरण कमलों में अनुरक्त मत्त भ्रमररूप जो सत्पुरुष हैं; वे दो नयों की युक्ति का उल्लंघन न करते हुए समयसाररूप शुद्धात्मा को अवश्य प्राप्त कर लेते हैं। ऐसी स्थिति में उन सत्पुरुषों को पृथ्वीतल पर विद्यमान अन्य मतों के कथनों से क्या लाभ है ?
इसप्रकार इस कलश में मात्र इतना ही कहा गया है कि जिनेन्द्र भगवान के अनुगामी सत्पुरुष को जब जैनदर्शन की द्विनयात्मक स्याद्वाद शैली से वस्तु का स्वरूप भलीभांति स्पष्ट हो जाता है और उसके बल से वे शुद्धात्मा को प्राप्त कर लेते हैं, मोह-राग-द्वेष व दुःखों से मुक्त होने का उपाय प्राप्त कर लेते हैं, उस पर चलकर निज कार्य में सफल हो जाते हैं तो फिर अन्यमतों के कथनों में उलझकर समय व शक्ति व्यर्थ बरबाद करने से क्या लाभ है ?