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जीव अधिकार
इति सुकविजनपयोगजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेवविरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ जीवाधिकार: प्रथमश्रुतस्कन्धः ।
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तात्पर्य यह है कि जैनदर्शन की स्याद्वादशैली से निज भगवान आत्मा का सच्चा स्वरूप समझकर उसी में अपनापन स्थापित कर, उसी में समा जाना ही श्रेयस्कर है ||३६||
इसप्रकार यहाँ नियमसार परमागम का जीवाधिकार और जीवाधिकार पर लिखी गई मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव कृत तात्पर्यवृत्ति टीका समाप्त हो जाती है।
जीवाधिकार की समाप्ति के अवसर पर टीकाकार जो पंक्ति लिखते हैं; उसका भाव इसप्रकार हैह्र
"इसप्रकार सुकविजनरूपी कमलों के लिए जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियों के विस्तार रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था, ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसार (आचार्य कुन्दकुन्द प्रणीत) की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में जीवाधिकार नामक प्रथम श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ ।”
देखो, यहाँ टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव स्वयं को न केवल सुकवियों में श्रेष्ठ बता रहे हैं, साथ ही यह भी घोषित कर रहे हैं कि जिसका छूटना संभव नहीं है ह्र ऐसी देह को छोड़कर मेरे पास अन्य कोई परिग्रह नहीं है; मैं पूर्णतः निर्ग्रन्थ हूँ और मेरे उपयोग का फैलाव पंचेन्द्रियों के विषयों में नहीं है।
ऊपर से देखने पर ऐसा लगता है कि मुनिराज स्वयं अपने मुख से अपनी स्तुति कर रहे हैं; किन्तु वह समय ऐसा था कि जब भट्टारकों का उदय हो गया था और अपरिमित परिग्रह रखकर भी वे भट्टारक स्वयं को निर्ग्रन्थ दिगम्बर मानते थे, कहते थे । ह्र ऐसी स्थिति में मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव को ऐसा लगा होगा कि भविष्य के लोग मुझे भी ऐसा ही दिगम्बर साधु न समझ लें ।
अत: उन्होंने उक्त कथन करके आत्मप्रशंसा नहीं की, अपितु स्वयं के कवित्व एवं हृदय में विद्यमान दिगम्बरत्व के प्रति अपनी निष्ठा को ही व्यक्त किया है। साथ में दिगम्बर मुनि कैसे होते हैं, कैसे होने चाहिए ह्न यह भी स्पष्ट कर दिया है।
यहाँ नियमसार एवं उसकी तात्पर्यवृत्ति टीका के साथ-साथ डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल कृत आत्मप्रबोधिनी हिन्दी टीका में जीवाधिकार नामक प्रथम श्रुतस्कन्ध भी समाप्त होता है ।
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