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अजीव अधिकार
एयरसरूवगंधं दोफासं तं हवे सहावगुणं । विहावगुणमिदि भणिदं जिणसमये सव्वपयडत्तं ।।२७।।
एकरसरूपगंध: द्विस्पर्शः स भवेत्स्वभावगुणः।
विभावगुण इति भणितो जिनसमये सर्वप्रकटत्वम् ।।२७।। स्वभावपुद्गलस्वरूपाख्यानमेतत् । तिक्तकटुककषायाम्लमधुराभिधानेषु पंचसुरसेष्वेकरसः, श्वेतपीतहरितारुणकृष्णवर्णेष्वेकवर्णः, सुगन्धदुर्गन्धयोरेकगंधः, कर्कशमृदुगुरुलघुशीतोष्णस्निग्धरूक्षाभिधानामष्टानामन्त्यचतुःस्पर्शाविरोधस्पर्शनद्वयम्, एते परमाणो:स्वभावगुणाः जिनानां मते । विभावगुणात्मको विभावपुद्गलः । अस्य व्यणुकादिस्कन्धरूपस्य विभावगुणा: सकलकरणग्रामग्राह्या इत्यर्थः।
जब जड़रूप पुद्गल स्वयं में स्थित रहता है; तब वे सिद्ध भगवान अपने चैतन्यात्मस्वरूप में क्यों नहीं रहेंगे?
तात्पर्य यह है कि रूपी पदार्थ अपने-अपने स्वरूप में रहते हैं। अत: जड़ पुद्गल भी अपने स्वरूप में रहता है और चैतन्य आत्मा भी स्वस्वरूप में ही रहते हैं।।४०||
विगत गाथा में परमाणु संबंधी विशेष व्याख्यान करने के उपरान्त अब इस गाथा में स्वभावपुद्गल के स्वरूप का व्याख्यान करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्न
(हरिगीत) स्वभाव गणमय अण में इक रूपरस गंध फरस दो।
विभाव गुणमय खंध तो बस प्रगट इन्द्रिय ग्राह्य है।।२७|| जो पुद्गल एक रस, एक वर्ण, एक गंध और दो स्पर्श वाला हो; वह पुद्गल स्वभाव गुणवाला है और विभाव गुणवाला पुद्गल तो प्रगटरूप से इन्द्रियग्राह्य हैह्र जैनागम में ऐसा कहा गया है।
इस गाथा का भाव टीकाकार मुनिराज पद्मप्रभमलधारिदेव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न
"यह स्वभावपुद्गल के स्वरूप का व्याख्यान है। चरपरा, कड़वा, कसायला, खट्टा और मीठा ह्न इन पाँच रसों में से कोई एक रस; सफेद, पीला, हरा, लाल और काला ह्न इन पाँच वर्षों में से कोई एक वर्ण; सुगंध और दुर्गन्ध में से कोई एक गंध तथा कड़ा-नरम, हल्का-भारी, ठंडा-गरम और रूखा-चिकना ह्न इन आठ स्पर्शों में से अविरुद्ध दो स्पर्श ये पाँच जिनेश्वर के मत में परमाणु के स्वभावगुण हैं।
विभावपुद्गल विभावगुणात्मक होता है। दो परमाणुओं से लेकर अनंत परमाणुओं से बना हुआ स्कंध विभावपुद्गल है। विभावपुद्गल के विभावगुण सम्पूर्ण इन्द्रियों के द्वारा ग्राह्य हैं, जानने में आने योग्य हैं ह ऐसा गाथा का अर्थ है।॥२७॥"