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जीव अधिकार
दव्वत्थिएण जीवा वदिरित्ता पुव्वभणिदपज्जाया । पज्जयणएण जीवा संजुत्ता होंति दुविहेहिं । । १९ ।।
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हमें तत्संबंधी चिन्ता होती ही नहीं है । इसप्रकार हम तो निरन्तर अपने शुद्धात्मा का ही अनुभव करते हैं; क्योंकि हमारी दृष्टि में इससे महान अन्य कोई कार्य नहीं है ||३४|| छठवें छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
(रोला )
संसारी के समलभाव पाये जाते हैं। और सिद्ध जीवों के निर्मलभाव सदा हों ।। कहता यह व्यवहार किन्तु बुधजन का निर्णय ।
निश्चय से शुद्धातम में न बंध - मोक्ष हों ||३५|| संसारी जीवों को सांसारिक गुण होते हैं और सिद्धजीवों को सिद्धि-सिद्ध अर्थात् परिपूर्ण निज परमगुण होते हैं ह्न यह व्यवहारनय का कथन है। निश्चयनय से तो भगवान आत्मा में मुक्ति भी नहीं है और संसार भी नहीं है । बुधपुरुषों का यही निर्णय है ।
इसप्रकार इस कलश में यही कहा गया है कि यद्यपि व्यवहारनय से यह कहा जाता है। कि जीव की संसारावस्था में मोह - राग-द्वेषरूप विभाव भाव पाये जाते हैं और मुक्तावस्था में स्वभावपर्यायरूप केवलज्ञानादि स्वभावभाव पाये जाते हैं; तथापि जब परमशुद्धनिश्चयनय से विचार करते हैं तो भगवान आत्मा के द्रव्यस्वभाव में न तो संसारावस्था है और न मुक्तावस्था ही है; क्योंकि त्रिकाली ध्रुव आत्मा तो पर और पर्याय से भिन्न परमपदार्थ है ।
इस परमपदार्थ में अपनापन स्थापित होने का नाम ही सम्यग्दर्शन है, इसे ही निजरूप जानने का नाम सम्यग्ज्ञान है और इसमें ही रम जाने, जम जाने, समा जाने का नाम सम्यक्चारित्र है ।
इन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की एकता ही मुक्ति का मार्ग है; अनन्त सुखी होने का एकमात्र उपाय है ।। ३५ ।।
विगत गाथा में निश्चयनय और व्यवहारनय से जीव के कर्तृत्व-भोक्तृत्व की चर्चा की थी; अब इस गाथा में द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनय से जीव का स्वरूप स्पष्ट करते हैं । गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है ह्र
( हरिगीत )
द्रव्यनय की दृष्टि से जिय अन्य है पर्याय से ।
पर्यायनय की दृष्टि से संयुक्त है पर्याय से ||१९||
द्रव्यार्थिकनय से जीव पूर्वकथित पर्यायों से भिन्न है और पर्यायार्थिक नय से जीव उक्त पर्यायों से संयुक्त है ।